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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वर्द्धमान का चरित्र वर्णित है। प्रसंगतः तत्कालीन मगध सम्राट बिम्बसार या श्रेणिक का उल्लेख भी आ गया है। इन्होंने अपने गुरु का नाम पद्मनन्दि और पुत्र का नाम अल्ह साह बताया है। इसकी हस्तलिखित प्रति सं० १५४५ की प्राप्त है अतः रचना अवश्य इससे पूर्व की होगी।
आपकी दूसरी रचना 'मल्लिणाह कव्व' में १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ का चरित्र वर्णित है। भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक होने से यह रचना १५वीं शताब्दी की अन्य स्वाभाविक मरुगुर्जर में लिखी रचनाओं से दूर पड़ गई है। वड्ढमाणकव्व पर अपभ्रंश का प्रभाव इससे भी अधिक है अतः कुल मिलाकर जयमित्र हल्ल को अपभ्रंश का कवि मानने के पक्ष में ही अधिक विद्वान् हैं, इसलिए इनकी रचनाओं के विवरण, उद्धरण आदि नहीं दिये गये हैं।
जयमूर्ति गणि-आपने १५वीं शताब्दी में ६४ गाथाओं की एक रचना 'मातृका' नाम से लिखी है। इसमें चौपई छन्द का अधिक प्रयोग हुआ है । भाषा सरल मरुगुर्जर है । उदाहरण स्वरूप इसके आदि और अन्त की पंक्तियाँ प्रस्तुत करता हैआदि “आदि प्रणव समरु सविचार, बीजी माया त्रिभुवनि सार ।
श्रीमंत मणी जपु निशिदीस, अरिहंत पय नितु नामुसीस । गणहर गरु उ गोयम सामि, अखय निधि हुइ तेहनइ नामि ।
नवनिधान तहं चऊदय रयण, जे नितु समरइ गौतम वयण (२। अन्त गौतम माइय अविगत हुई, अनुभवि जयमूरति गणि कही।
लोकालोकि एहनु व्यापु. यति जाणइ जोइ आपु ।६४।" इसकी भाषा पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर है। नाहटा जी ने इस प्रकार की कई रचनाओं-मातका फाग, मातृका, दीपक माई, आत्मबोध मातृका और शृङ्गार माई आदि का विवरण म० गु० जे० कवि में दिया है।
जयवल्लभ गणि-आप माणिक्य सुन्दर सूरि के शिष्य थे अतः आपका लेखन काल उसी समय के आसपास होगा। आपकी रचना 'स्थूलभद्र बासठिओं का समय १५वीं शताब्दी निश्चित है । इसमें स्थूलभद्र की पुरानी परिचित कथा बासठीओ नामक नई काव्य विधा में प्रस्तुत की गई है। श्री देसाई ने इसकी भाषा को जुनी गुजराती कहा है। उन्होंने इसका कोई उद्धरण नहीं दिया है अतः भाषा के सम्बन्ध में कुछ निश्चयपूर्वक कह पाना संभव नहीं है।
१. श्री अ० च० नाहटा-मरुगुजर जैन कवि पृ० १११ २. श्री मो० द० देसाई-जैन साहित्य नो इतिहास पु० ४८८
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