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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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" सामिणि सरसति तणइ पसाइ, नितु मन वांछित कवित कराइ | अम्ह मनि आज ऊपनु भाउ, भगतिहिवन्निसु सुहगुरु राय | गरुया अभयसिंह सूरींद, तास पट्ट उज्जोयण चन्द | तपागच्छ मंडणू गुणवंत, सिरि जयतिलक सूरि जयवंत ।। " 1 इसके ३२ वें ( अन्तिम ) छन्द में लेखक का नाम आया है, किन्तु अन्य अपेक्षित विवरण अनुपलब्ध है, यथा
" इण परि जे नितु सुहगुरु थुणइ, तेउ च उपइ जे श्रवणिहि सुणइ । जयकेसरि मुणिवर इम कहइ, ऋद्धि वृद्धि मंगल ते लहइ | ३२ | "
इसकी १६ वीं शताब्दी की लिखित प्रतिलिपि भारतीय विद्या मन्दिर, बम्बई में उपलब्ध है ।
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अयतिलक सूरि- इसी शताब्दी की लिखी हुई जयतिलक सूरि की 'गिरनार चैत्य परिपाटी' नामक रचना ( १८ गाथा ) उपलब्ध है । इसका प्रथम छन्द देखिये -
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"सरसति वरसति अमिय ज वाणी,
हृदय कमल अब्भिंतर आणी, जाणीय कवियणि छन्दो ।" गिरिनार गिरिवरहज केरी,
चित्र प्रवाड़ि करूउ नवेरी, पूरीय परमाणंदो |१|
इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है
"हूँ मूरख पणइ अच्छे अजाण, श्री जयतिलक सूरि बहु मानं, मानु मन मांहि ऐहो । पढ़इ गुणइ जे ए नवरंगी, चेत्य प्रवाड़ि अतिहि सृचंगी, चंगी करई सुदेहो |१८|| ३
इसकी भाषा 'ण'कार की बहुलता के अलावा अन्य दृष्टियों से बिल्कुल पुरानी हिन्दी के करीब है । 'ण'कार की बहुलता राजस्थानी या अपभ्रंश का प्रभाव हो सकता है । यह एक सरल और संक्षिप्त रचना हैं जो मरुगुर्जर भाषा में रचित है ।
जयमित्र हल्ल - आप दक्षिण भारतीय दिगम्बर विद्वान् प्रतीत होते हैं । आपकी दो रचनाओं - वड्ढमाण कव्व ( वर्द्धमान चरित्र ) या सेणिउ चरिउ तथा मल्लिणाह कव्व (मल्लिनाथ चरित) का समय वि० की १५वीं शताब्दी बताया गया है । वर्द्धमान चरित्र देवराय के पुत्र होलिवर्मा को समर्पित है । यह ग्यारह संधियों की रचना है। इसमें तीर्थंकर
१. श्री अ० च० नाहटा -म० गु० जं० कवि, पृ० ७२
२. श्री अ० च० नाहटा -म०
गु० जे० कवि, पू० ७३
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