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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास "आदि नरवर आदि नरवर आदि भगवन्त, आदीश्वर श्री आदिजिन । आदिनाह आदिहिं प्रसिधउं । आदि जोगी गुरनिमीउ, आदि वण वन्यास लीधउ । आदिधम्म प्रकासीयउ, आदिहिं अरिहंत देव । आदि लगइ अहनिसि अमर, करइ जुगलपय सेव ।१।"
इसमें १७९ के बाद २४० कड़ी तक खण्डित है । २४१ और २४२ के बाद पुनः प्रति खण्डित होने से वांछित विवरण नहीं उपलब्ध हो सके हैं। अन्तिम पंक्तियों को देखने से लगता हैं कि एक-दो कड़ियों के बाद ही रचना समाप्त होने वाली थी क्योंकि आशीर्वादात्मक पंक्तियाँ रचना के अन्त की ही सूचक लगती हैं, यथा -
'अकमनां जे नित आराधइ, तेह घरि दिन-दिन संपति बाधइ । थोड़इ सेविइ फल घणों, उत्तम जिन संपूरु दीठउ,
जिम जिम जोइइ..."
आगे खण्डित है। यह प्रति मांडण कृत सिद्धचक्ररास के साथ एक ही प्रति में प्राप्त हुई है, इसके अलावा भाषा की दृष्टि से भी मांडण कृत सिद्ध चक्ररास और नल दवदंतीरास एक ही समय की रचनायें लगती हैं। मांडण श्रेष्ठिकृत सिद्धचक्ररास सं० १४९८ की रचना है अतः इसका भी रचनाकाल इसी के आसपास होगा। देवसुन्दर सूरि रास का रचनाकाल सं० १४४५ कहा गया है। इस कथन के लिए श्री अ० च० नाहटा ने कोई प्रमाण प्रकाशित नहीं किया है। इससे यह शंका भी होती है कि एक ही कवि की दो रचनाओं के बीच ५० वर्ष का लम्बा अन्तराल क्यों है ? क्या इनके दोनों लेखक दो व्यक्ति तो नहीं हैं ? यह पहेली विद्वानों के समक्ष
हल के लिए प्रस्तुत है। ... जयकेशर मुनि आपकी रचना 'जयतिलक सूरि चउपइ' (३२ गाथा)
१५ वीं शती की रचना है। यह एक ऐतिहासिक चउपइ है जिसमें कवि ने जयतिलक सूरि का, जो तपागच्छीय अभयसिंह सूरि के शिष्य थे, गुणानुवाद किया है । इसके प्रथम दो छन्द निम्नलिखित हैं
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