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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास "अहे नइ हरिमइ आराहीउ, नवि जागु सिवराति,
गोरी कण्ठ न ऊतरि, माहरी उत्तम जाति ।" एक जैन कवि का उत्तम जाति के प्रति यह भाव भी उल्लेखनीय हैं । रचना के अन्त में कवि का नाम है किन्तु रचना काल आदि से सम्बन्धित अन्य विवरण नहीं है, यथा
'अहे वसन्त क्रीडा तीह अति करि, आणंद मुनिनी पूरि ।
मन रंगि एम बोलि, श्री गुणचन्द्र सूरि ।१६।" इस फागु का प्रारम्भ निम्नलिखित दोहे से हुआ है :--
अहे फागुण फली अ बीजोरडी, पुहतलु मास बसन्त ।
बनि वनि तरुअर कूपला, केसू कसम अनन्त ।१। यह फागु काव्यत्व की दृष्टि से एक सरस रचना है और उद्दाम यौवन के रस को उच्छलित करने वाले काव्य-प्रकार फाग के अनुरूप है। इसकी भाषा पर गुर्जर का प्रभाव मरु की अपेक्षा अधिक है । सब कुल मिलाकर यह मरुगुर्जर का एक सरस जैन काव्य है। ___ गुणरत्न सूरि - आप नायल गच्छीय गुणसमुद्र सूरि के प्रशिष्य और गुणदेव सूरि के शिष्य थे। आपने इसी शताब्दी में 'ऋषभ रास' और 'भरत बाहुबलि पवाडा' नामक दो रचनाएँ की। ऋषभ रास में ऋषभदेव का पावन चरित्र चित्रित है । इसका प्रारम्भ निम्न पंक्तियों से हुआ है :
"आदि अक्षर ॐकारसिउं, अरिहंस पणम्योसु रासबंध रिसहेसनु नव नव रस वन्नेसु । नायलगच्छ गुणदेव गुरु, पामी सुगुरुपसाऊ, गुण रयण सूरि इमि ऊचरी वन्नसु वनिताराउ । वंश इखागह हूँ तविसु, आणी अति घण भत्ति ।
गुणतां गण गिरुयडि चडि, सरसत्ति आपु मत्ति ।" इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये :"केवल दीपक त्रिभुवन भांण, समोसरण मांहि करि बषांण । गुणरत्न सूरि स्वामी जयवंत, प्रथम प्रबन्ध ऋषभ जयवन्त ।१४३। इति ऋषभ चरिते प्रथम प्रबन्ध ।' १. श्री मो० ६० देसाई -जै० गु० क० भाग १ पृ० ३०
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