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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य २२९ इसकी भाषा यत्रतत्र अपभ्रंश से प्रभावित है किन्तु सामान्य रूप से सरल और सुबोध मरुगुर्जर है । गुणचन्द्र सूरि- आपने वसन्त फागु ( १६ गाथा ) १५ वीं शताब्दी में लिखा । यह फागु 'प्राचीन फागु संग्रह' में प्रकाशित है । फागु में रचना काल नहीं दिया है । गुणचन्द्र नामक जैन आचार्य वि० १४ वीं और १५ वीं शताब्दी में दो तीन हो गये हैं । प्रस्तुत फागु के लेखक कौन से गुणचन्द्र सूरि हैं यह जानने का कोई उपाय उपलब्ध नहीं है । भाषा के स्वरूप के आधार पर ही सम्भवतः प्राचीन फागु संग्रह के विद्वान् सम्पादक द्वय ने (श्री मोतीलाल सांडेसरा एवं श्री सोमाभाई पारेख ) इसे १५ वीं शती की कृति माना है। इस फागु की एक विचित्रता यह है कि जैन रचना होते हुए भी इस फागु में कोई धार्मिक कथानक नहीं है। एक जैन साधु द्वारा शुद्ध ऐहिक आधार पर लिखा शृङ्गार रस से ओत-प्रोत, नखशिख के परपरित वर्णन से युक्त यह एक विरला काव्य है । अपने कथन के प्रमाणस्वरूप निम्नाङ्कित दोहा प्रस्तुत कर रहा हूँ --: ' कामिणि कारणि भमरल, भमतु माझिम राति । काची कलिय म भोगवी, भोगवी नव नवि भाँति । " 1 वसन्त और शृङ्गार का युगपत् वर्णन करता हुआ कवि लिखता है'जसी तरुवर पाखंडी, आखंडी काजलिरेह; बालपणानु नेहडुं वालमं काई ऊवेखि । ' भिन्न भिन्न प्रदेशों की कामिनियों की सौन्दर्य विशेषताओं को प्रकट करता हुआ कवि आगे लिखता है : "अहे मचकं दिहि मन मोहिउ, लहिकाइ लाइ म मासि । चतुर सुरंगी सुन्दरी गूजरि केरी नारि |९| " इसी प्रकार मरहठी, सोरठी आदि नारियों का भी वर्णन मिलता है । कवि एक सुन्दरी के कण्ठहार के हीरे से पूछता है । "अहे हीरडा तइ हरि पूजीउ, कि जागु सिवराति, गोरी कण्ठ न ऊतरि सारी दीह नी राति ।" तो हीरा जवाब देता है : १. 'प्राचीन फागु संग्रह' फागु संख्या १३ पृ० ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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