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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
फाग का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है।
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'अहे तोरणि वालंभ आवीउ, यादव केरु चंद | पसू देखी रथ वालीउ, विह वसि हूउ विछंद 19 ।”
इसी प्रकार कष्ट पूर्वक बारह महीने विरहिणी काटती है पर प्रिय नहीं मिलता :
"बार मासह माहितां, जे च वडेरु होइ । पभणइ राणी राइमइ, नेमि न मेलइ कोइ ।' अन्तिम छन्द देखिये :
"कान्ह भणइ सणि राइमइ, मेलिसु तोरु सामि आठ भवंतर प्रीतडी, सिद्धि ऊपरि ठांम ॥ २२ ।”
इसके कई स्थल सरस भावों से ओतप्रोत हैं और रचना में काव्य सौष्ठव की झलक मिलती है । भाषा भी काव्योचित मधुर और प्रसादगुण सम्पन्न मरुगुर्जर है |
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आपकी दूसरी रचना 'अँचलगच्छ नायक गुरु रास शुद्ध साम्प्रदायिक रचना है और इसकी भाषा कहीं-कहीं अपभ्रंश से बोझिल है, उदाहरणार्थ इसका प्रथम छंद आगे दिया जा रहा है ।
आदि
"रिसह जिणु नमिवि गुरु वयण अविचल धरी । पंच परमेट्ठि महमंतु मनिदृदु करी ।
अंचल गच्छि गछराय इणि अणुकमिइ ।
सुगुरु वन्ने सुउ गुरुभत्ति मदविक्कमिइ । १ ।
आगे इसके दो छन्द दिए जा रहे हैं जिनसे भाषा के अलावा रचना और रचनाकार सम्बन्धी कुछ विवरण भी प्राप्त हो सकते हैं यथा"खंभाइत वर नयर मझारि, दीवाली दिनु अनु रविवारे, संवत चउदविसोत्तरइए |३७| श्रीमाली छांडा कुलि जाउ, कान्ह तणइ मनि लागउ भाउ, नवउ रासु सो इम करइए |३८| अर्थात् छांडा कुलोत्पन्न कान्ह कवि ने सं० १४२० में यह रचना खंभात में की। इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है :
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' लच्छी तास सयंवरि आवइ, एउ रासु जो पढइ पढावइ । कान्ह कवीसर इम भणइ ए |४०| 1
१. श्री अ० च० नाहटा - मरुगुर्जर जैन कवि पृ० ६५
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