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मरु-गुर्जर जैन साहित्य कवियण-१५वीं शताब्दी की एक रचना 'मातृकाफाग' (गाथा ३१)को कवियण की कृति श्री नाहटा जी ने बताया है । वैसे कवियण शब्द कवि के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त होता है । प्रस्तुत रचना में उस शब्द का इस प्रकार प्रयोग किया गया है :
"हव कर जोड़ीय वीनवऊ, दीन वयण संभारि ।
क्षमा करेज्यो भवियण, कवियण ए आचारु ।३०।। पता नहीं कवियण शब्द व्यक्तिवाचक है अथवा कवियों के लिए सामान्य संबोधन मात्र है किन्तु श्री अ० च० नाहटा ने इसे व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में लिया है अतः यहाँ भी कवियण को एक व्यक्ति विशेष मान लिया गया है जिसने मातृकाफाग लिखा होगा। इसमें अकारादि क्रम से छन्द रखे गये हैं। तीसरा छन्द 'आ' से प्रारम्भ होता है
"आगलि दो दो लोहड़ीय, जीभड़ी वोलिय आलु ।
उंकारस्य मागमि आगमि, कहीयस्य सारु ।३।" इसका प्रथम छन्द निम्नांकित है :
"अहे जिण चलणा सिर नमिय, पानिय सहि गुरु भागु ।
माईय बावन्न आक्षर, पारवरीय करि फागू । इसका अन्तिम ३१वाँ छन्द इस प्रकार है :
"माईय अरथ जे बूझइ, सूझइ ईण संसारि ।
पाठ दिश्या सवि छहिसिइं ए, लहसिइं सुख नर नारि ।३१॥" कान्ह-आपकी दो रचनायें प्राप्त हैं । (१) नेमिनाथ फाग-बारमास ( गाथा २२), (२) अंचलगच्छ नायक गुरु रास सं० १४२० खंभात गा० ४० । कवि कान्ह श्रीमाल छांडा कूल के थे। प्रथम रचना नेमिनाथ फाग एक बारहमासा है जिसमें वर्ष के बारह महीने में राजुल का विरह व्यथित जीवन दर्शित है । इसमें कथा का आधार कम और मार्मिक वर्णन अधिक है। आषाढ़ में नायिका की विरहव्यथा का वर्णन करता हुआ कवि कहता है :
"धुरि आसाढहं ऊनयु, गोरी नयणे नेह ।
गाढइ गाजिम पापिउ, च्छानउवरिस न मेह।" वर्षा की अंधेरी रात विरहिणी के लिए कैसी पीड़ादायक है, इसकी अभिव्यक्ति इस छन्द में देखिये :
"निसि अंधारि अकली, मधुरइ वासइ ओ मोर ।
विरह सताइ पापीउ, बालंभ ही एक ठोर ।" १. श्री अ० च० नाहटा-जन मरु गुर्जर कवि पृ० ११० २. श्री मो० द० देई-जं. गु० क. भाग ३ खंड २ पृ० १४८१
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