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________________ २२६ ___ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद इतिहास इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं "गाहा दुहु वस्तु चउपइ, सुजिस्सइ च्यारि बत्रीसां हुई। जूअली त्रिणसइ विशाला, तिण मोहमाया जाला ॥ सुणंता दोष दरिद्र सविटलइं, भणई असाइत बिह अफलां फलई ।' यह लोकप्रिय कथा है अतः इसकी बहुत प्रतियाँ उपलब्ध हैं जिनमें पाठभेद भी हैं किन्तु उतने विवरण में जाने का यहाँ अवसर नहीं है। इसकी भाषा मरुगुर्जर है। उदयकरण-इनकी रचनाओं कयलवाड़ पार्श्वस्तोत्र और जीरावलापार्श्वस्तोत्र को सं० १४२७ में रचा हआ श्री नाहटा जी मानते हैं अतः इनका विवरण १५ वीं शती में होना था किन्तु उन्होंने जैन मरुगुर्जर कवि भाग १ में इन्हें १४ वीं शताब्दी की रचनाओं के साथ रखा है अतः इनका विवरण १४ वीं शती में दिया गया है और वहीं देखा जाय । उदयवंत-विवरण 'विनय प्रभ' के अन्तर्गत देखा जाय । कर्णसिंह-आप प्राग्वाट वंश के श्रावक कवि थे। आप ने १५वीं शताब्दी में 'चैत्य प्रवादी रास' लिखा जिसमें सोरठ देश में स्थित चैत्यों का भक्तिभाव से स्मरण किया गया है। इसकी ४० पत्रों की प्रति में कुल ११२ कड़ियाँ उपलब्ध हैं। प्रति के अपूर्ण होने के कारण अन्त का विवरण नहीं प्राप्त है। भाषा के नमूने के लिए उसके निम्नाङ्कित उद्धरण द्रष्टव्य हैं"जिन चउवीसउ चलण नमेऊ, सामिणि सरसति मनि समरेऊ । __ अनइ प्रणमि सुहु गुरु चरण ॥१॥ प्रागवंसि करणसी संघदासो, चैत्रप्रवाडिहिं कीधउ रासो, भवीयाणहं दुरीयं हरऊ ॥२॥ पहिलू वण्णिसु सोरठ देसो, विमलाचल बिम्ब संख्या कहिसो, मुगति पुरीयभवीयां सुणउ।"" इसकी भाषा सामान्य बोलचाल की मरुगुर्जर है। इसमें सोरठ देश का वर्णन रुचिकर है। चैत्यों का वर्णन कवि ने आस्तिक भाव से किया है किन्तु रमणीयता अपेक्षाकृत कम है । १. श्री मो० द० दे०-जै० गु० क०, भाग १ पृ० ४६-४७ । २. श्री मो० द० दे०-जै. गु० क०, भाग ३ पृ० १४८५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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