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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२२५ परन्तु उत्तरार्द्ध की भाषा काफी सरल और स्वाभाविक होती गई है। इस शताब्दी में विविध प्रकार की रचनायें की गई हैं विशेषतया रास साहित्य के स्वरूप में बड़ा परिवर्तन हुआ। बड़े-बड़े रास लिखे जाने प्रारम्भ हुए. जो चरित काव्य बन गये। लोक कथाओं के आधार पर भी आख्यान काव्य मरुगुर्जर में इसी समय से प्रारम्भ हुए। इस बहुरंगी और समृद्ध साहित्य का परिचय आगे दिया जा रहा है। ___ असवाल -आपने सं० १४७९ में 'पासणाह चरिउ' लिखा, जिसमें तीर्थकर पार्श्वनाथ का चरित्र १३ संधियों में लिखा गया है। इस रचना में पद्धडिया छन्द का अधिक प्रयोग हआ है। कवि के पिता का नाम लक्ष्मण पण्डित बताया गया है। इसकी भाषा पर अपभ्रंश की थोड़ी छाप झलकती है।
आसायत-श्री मो० द० देसाई ने इन्हें जनेतर लेखक बताया है।" आपकी रचना का नाम है हसाउली-हंस वच्छ चौपइ। यह रचना जैन कथा पर आधारित है और १५वीं शताब्दी की रचना है अतः इसे यहाँ स्थान देना समीचीन है। सौभाग्यमण्डन गणिकृत 'हंस वच्छराज कथा' नामक प्राचीन कृति पर यह रचना आधारित है। इसकी कथा के सम्बन्ध में विशेष विवरण जानने के लिए श्री केशवराम शास्त्री कृत कविचरित देखा जा सकता है। यह एक प्रसिद्ध लोककथा है। देसाई ने इसे १६वीं शताब्दी की रचना भी माना है। किन्तु पहले इन्हें पन्द्रहवीं का जैनेतर कवि बताया था इसलिए इनका विवरण १५ वीं शताब्दी में दिया गया है। सं० १५१३ में लिखित इसकी प्रति प्राप्त है अतः यह निश्चय ही १५ वीं शती की रचना होगी। इस कृति की भाषा के उदाहरणार्थ इसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धत हैंआदि "अमरावइ संमाणं, प्रत्यक्ष प्रमाणं, अवर नयराणं ।
पुर पट्टण पयठाणं, अयठाणं वीर बावनया ॥" चउपइ “शिखर बद्ध दस सहस प्रासाद कनक कलस धन नरवइ नाद ।
गोदावरी, निर्मल नीर, पुर पहिठाण वसइ तसुतीर ।।"
१. पं० परमानन्द जैन-जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह, भाग २ पृ० १३० । २. मो० द० दे०-० गु० क०, भाग ३ पृ० २१०८ । ३. वही पृ० ४५८।
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