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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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कवि को फिरोज शाह के दरबार में भी प्रतिष्ठित स्थान मिला था । जिनेश्वर सूरि के शिष्य सोमकीर्ति ने सं० १४११ में कातन्त्रवृत्तिपंजिका लिखी । खंडिल गच्छ के कालिकाचार्य सन्तानीय भावदेव सूरि ने पार्श्वनाथ: चरित्र लिखा । इन्हीं भावदेव सूरि ने एक कालिकाचार्य कथा भी लिखी थी । कृष्णषगच्छीय महेन्द्र सूरि के शिष्य जयसिंह सूरि ने सं० १४२२ में कुमारपाल चरित्र लिखा । इनके गुरु महेन्द्रसूरि की मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली में बड़ी मान-प्रतिष्ठा की थी । इन्होंने यन्त्रराज नामक ज्योतिषग्रन्थ पाँच अध्यायों में लिखा । इस युग में आँचलिक महेन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य जयशेखर सूरि एक बड़े विद्वान् कवि हुए हैं जिन्होंने प्रबोधचिन्तामणि, उपदेश चिन्तामणि सावचूरि, धम्मिल चरित्र आदि नाना ग्रन्थ विविध भाषाओं में लिखे थे । इन्हीं महेन्द्रप्रभ सूरि के प्रसिद्ध शिष्य मेरुतुंग ने व्याकरण, दर्शन, धर्म आदि नाना विषयों में तमाम रचनायें की थी । इस युग के तपागच्छीय देवसुन्दर सूरि आचार्य के शिष्यों में ज्ञान सागर, कुलमंडन, गुणरत्न, साधुरत्न और महाकवि सोमसुन्दर आदि उल्लेखनीय लेखक हुए थे । वीरांक हम्मीर महाकाव्य के कर्ता नयचन्द्र सूरि ग्वालियर के तोमरवंशी राजा वीरम के दरबार के प्रतिष्ठित कवि थे । इन्होंने रम्भामंजरी नामक नाटिका भी लिखी थी ।
इस काल में बहुत सी प्रतियाँ ताड़पत्रों पर लिखी गईं और तमाम पुरानी ताड़पत्रीय प्रतियों का जीर्णोद्धार कराया गया । नये शास्त्रभंडार स्थापित कराये गये । इस प्रकार न केवल विविध भाषाओं में विविध विषयों पर विविध विधाओं में साहित्य का सृजन हुआ बल्कि उसकी सुरक्षा का सुन्दर प्रबन्ध भी जैनधर्मावलम्बियों द्वारा किया गया ।
जैसा पहले कहा गया १५ वीं शती का उत्तराद्ध सोमसुन्दर सूरि और उनके गुरु भ्राताओं एवं शिष्यमंडल से प्रभावित युग है, इसीलिए इसे सोमसुन्दर युग भी कहा जा सकता है अतः इनका परिचय विस्तारपूर्वक आगे स्वतन्त्र रूप में दिया जायेगा । इस काल की अन्य कलाओं में स्थापत्य की दृष्टि से धरणशाह द्वारा निर्मित राणकपुर मन्दिर, जैसलमेर स्थित लक्ष्मण विहार नामक पार्श्वजिनालय और अहमदशाह द्वितीय द्वारा निर्मित अहमदशाह की जामा मस्जिद उल्लेखनीय कृतियाँ हैं ।
१५ वीं शताब्दी से मरुगुर्जर साहित्य में एक नया मोड़ आता है। इस शताब्दी की प्रारम्भिक कुछ रचनाओं में अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है
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