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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२२३ सं० १४४४ में आदिनाथ की प्रतिष्ठा चित्तौड़ में कराई और सं० १४४९ में खंभात के श्रीमाली हरपति शाह ने गिरनार के नेमिनाथ प्रासाद का जीर्णोद्धार कराया । मन्दिर-मूर्ति की प्रतिष्ठा, संघयात्रा, पुस्तक-लेखन एवं विहार और प्रवचन द्वारा धर्म की प्रभावना का कार्य करनेवाले जैनाचार्यों में खरतरगच्छीय आचार्य जिनभद्र सूरि और जिनवर्द्धनसरि का नाम चिर स्मरणीय रहेगा। इन्होंने अनेक जिनालयों की प्रतिष्ठा कराई, पुस्तकभंडार स्थापित करवाये, जगह-जगह पुस्तकालयों की स्थापना करवाई। पुस्तकों की जीर्ण-प्रतियों और नष्ट मूर्तियों का उद्धार करवाया। जिन वर्द्धन सूरि ने पिप्पलक शाखा का प्रवर्तन किया।
तपा० आ० सोमसुन्दरसूरि इस युग के युगपुरुष थे। गुर्जर साहित्य के इतिहास में ( सं० १४५६ से १५०० तक ) १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध उनके नाम से सोमसुन्दर युग कहा जाता है । वे इस काल के साहित्य महारथी थे। जैनाचार्यों में उनका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था और वे राजमान्य आचार्य थे। इन्होंने धर्म की प्रभावना में बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। इसी प्रकार अन्य साधु-साध्वियों ने इस विपरीत काल में भी धर्म की रक्षा और प्रभावना का कठिन कार्य किया था।
साहित्यिक पीठिका-जैनाचार्यों द्वारा या तो स्वयम् या उनके संरक्षण तथा प्रोत्साहन से दूसरे लेखकों द्वारा विपुल जैनसाहित्य लिखा गया । उसकी एक संक्षिप्त झलक यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। इस काल में गद्य और पद्य दोनों प्रकार का साहित्य खूब लिखा गया ।' राजशेखर सूरि ने, जो दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद शाह से सम्मानित हुए थे, बड़े सुन्दर गद्य में चतुविशति प्रबन्ध ( प्रबन्धकोश ) नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें २४ ऐतिहासिक प्रबन्ध हैं। इन्होंने सं० १४१७-१९ में कौतुककथा ( अन्तर कथा संग्रह ) लिखा और श्रीधरकृत न्यायकंदली पर पंजिका भी लिखी। सं० १४०६ में जिनचन्द्र सूरि की शिष्या गुणसमृद्धि महतरा ने प्राकृत में अंजनासुन्दरी चरित्र ( ५०४ श्लोक ) जैसलमेर में लिखा। किसी महिला द्वारा प्राकृत में लिखी संभवतः यह प्रथम रचना होगी। मेरुतुंग ने सं० १४०९ में कामदेवचरित और सं० १४१३ में सम्भवनाथचरित लिखा। बृहद्गच्छीय साधु गुणभद्र के शिष्य मुनिभद्र सूरि ने मुनिदेवसूरिकृत शान्तिनाथ चरित के आधार पर नया शान्तिनाथ चरित लिखा। इस
१. देखिये-श्री मो० द० देसाई-'जैन साहित्यनो इतिहास' पृ० ४४० ।
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