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मरु गुर्जर जन साहित्य
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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में अज्ञात कवि कृत एक गीत 'जिणदेव सूरि गीत' शीर्षक से संकलित है । सम्पादक इसे १४वीं शताब्दी में लिखा गया मानते हैं । अतः उसका भी संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। जिणदेव सूरि जिणप्रभ सूरि के पट्टधर थे। शाह कुलधर इनके पिता और वीरणी उनकी माता थी। आपने अपने दादागुरु जिनसिंह सूरि से दीक्षा ली थी और अपने व्यक्तित्व तथा वक्तृत्व से शाह मुहम्मद को प्रभावित किया था। आप ज्ञान-विज्ञान, छन्द-अलंकार, काव्यशास्त्र और नाटक आदि के उत्तम ज्ञाता थे। आपके दो पट्टधर हुए, एक जिनमेरु और दूसरे जिनचन्द्र सूरि । इस गीत में यह सब विवरण संक्षेप में दिया गया है । इसमें कुल आठ ही छन्द हैं । इसका प्रारम्भिक छन्द निम्नांकित है
"निरुपम गुण गण मणि निधान संजमि प्रधानु'
सुगुरु जिणप्रभ सूरि पट उदयगिरि उदयले नवल भाणु ।" उनके प्रभाव से मुहम्मद शाह ने कन्नाड़ापुर मंडण वीरप्रभु को सम्मानित किया था । यथा :
"जेहि कनाड़ापुर मंडणु सामिउं वीर जिणु । महमदराइ समप्पिउँ थापिउ सुभलगनि सुभदिवसि । घणु जिनसिंह सूरि दिखियाउ धनुचन्द्र गच्छ,
धनु जिणप्रभ सूरि निजगुरु जिणिनिज पाटिहिं थापियउ।"1 शास्त्र ज्ञान और तपश्चर्या में इनकी तुलना वज्रस्वामी से की गई है। इन्हें वादियों का गर्व चूर्ण करने वाला कहा गया है । इसके अन्त की पंक्तियाँ देखिये :
"वादिय मलगल दलण सीहो विमल सीलधरु ।
छत्रीस गुणधर गुण कलिउ चिरजयउ जिणदेव सूरि गुरु।" कुछ विशेष प्रकार की काव्य विधाओं का प्रारम्भ १४वीं शताब्दी की विशेष साहित्यिक उपलब्धि है इनमें संधि, रेलआ, धवल, चर्चरी, कलश, चंद्रायणा, बावनी, बोली, धुल आदि उल्लेखनीय हैं और इनके उदाहरण दिये गये हैं। काव्य प्रकारों के सम्बन्ध में श्री नाहटा का तत्सम्बन्धी लेख ना० प्र० पत्रिका, वाराणसी में पठनीय है जिनका संदर्भ यथास्थान
१. ऐ० जे० काव्य संग्रह पृ० १४
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