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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसी प्रकार अपभ्रंश का मुलम्मा 'युगादिदेव कलश' की इन पंक्तियों में साफ झलक रहा है :जस्स पय पंकयं निप्पडिम रुवयं सुर असुर नर खयर वयसी कपं ।' तस्स रिसहस्स भत्तीइ मज्जण विहिं, किंपि पभणेमि तुम्हि कुणह
सवणातिहिं । अधिकतर कृतियों की भाषा सहज, सरल मरुगुर्जर है जिनके उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। 'स्थूलिभद्र गीतम्' ( गा०८) की भाषा का नमूना देखिये :
तासुदेखि गुण गुरि मन रंजिउ दुक्खरु भासइ । तसु गुण थणिवि करिवि जो भासइ, तसु घरि सिरि आवासइ ।" यही नहीं, कहीं कहीं भाषा काव्योचित प्रवाहमय और मधुर भी है यथा
"सिरि सोहत फणामणि मालं, अट्टमि चंद सरिख सम भालें । रवि ससिहर कुंडल संकासं वंदे साऊ जिणहरि पासं ।'
अन्त में 'श्री अंतरीक पार्श्वनाथ स्तवनम्' की अन्तिम पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिसमें किसी अज्ञात कवि ने वाराणसी के पार्श्वनाथ का उल्लेख किया है
"पोस दसमिहि पोस दसमिहि जम्मु सुपसिद्ध । वाराणसि वरनयरि आससेग नरनाह मंदिरि । वम्मा उरि संभालिउ मेरुसिहरिन्हविउ पुरंदरि । कमठ असुर गय मय महणि, केसरि जिम वलवंतु ।
सिरिपुर मंडणु पास जिणु, अतंरीउ जयवंतु ।५। १४वीं शताब्दी की इस रचना में वाराणसी' शब्द का प्रयोग इस शब्द के प्राचीन प्रचलन का उदाहरण है। पार्श्व भगवान की यह जन्मस्थली है। इसमें सिरीपुर के पार्श्वनाथ (अन्तरीक) की वंदना है ।
१. श्री अ० च ० नाहटा--मरु गु० ज० कवि पृ० ४१ २. वही पृ० ५३ ३. वही पृ० ५७ ४. वही पृ० ६२
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