SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास असु कवियण कहे मदमोडि, धरमि सरव टले वली खोडि । धरमई लहइ संपदा कोडि, वरीइ सिव रमणीनी जोरि।२६८।। लगता है कि इसकी अन्तिम कुछ कड़ियाँ छुट गई हैं और यह प्रतिलिपि । अपूर्ण है । शायद आगे की कड़ियों में रचना और रचनाकार सम्बन्धी विवरण रहा हो। अज्ञात कवि कृत 'मातृका चउपई' प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में प्रकाशित है । इसमें संयम का संदेश दिया गया है । इसमें कुल ६४ छन्द हैं। इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है "त्रिभुवन सरणु सुमरि जगनाहु जिव फिट्टइ भव दवं दुहदाहु । जिणि अरि आठ करम निर्दलीय नमो जिन जिम भवि नावउवलिय । शरीर की क्षणभंगुरता की उपमा कमलपत्र पर पड़े जल विन्दु से देता हआ कवि संसार की असारता का संकेत इस प्रकार करता है :__ "उप्पल दल ऊपरि जिमनीरु तेसॐ चंचल जीव सरीरु । धणु कणु रइणु सइणु तिम सहू दीसइ धम्म एक्कु घर रहू ।१५। यह संसार दुःख का भंडार है "इणि संसारि दुख भंडारि', इस भक सागर को वही पार कर सकता है जिसने समकित ( जैन धर्म की दीक्षा) स्वीकार कर लिया हो, यथा - "एकह परि पामिसि भवपारु जइ समकित कर अंगीकारु । वीरनाथु कहइ आगमि तोइ, विणु समकित सिद्धनवि होइ।"3 कवि का दढ़ विश्वास है कि जिण उपासना के बिना उद्धार नहीं हो सकता: "जग तारणु जिउ जग आधारु, जिण विणु अवरि नहीं भवपारु ।' जैन साहित्य के भक्तिभाव का एक उदाहरण निम्न पंक्तियों में अवलोकनीय है : 'णव णव परि मग्गउ भव चारु, सामीअ अम्हारीय सारु । असरण सरणु तुहुं जिजगनाहु, भवि पडत अह्म देजे बाहु ।" रचना का अन्तिम छन्द इस प्रकार है : "जा ससि सुरु भूयणु व्याप्पंति, जा ग्रह नक्षत्र तारा हुंति । जा वरतइ बसुह व्याप्पंति तां सिवलच्छि करउ मंगल चारु ।६४। इसकी भाषा में प्रासादिकता और प्रवाहशीलता है। भाषा अपभ्रंश के आग्रह से मुक्त स्वाभाविक मरुगुर्जर है । १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४१० २. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह पृ० ७४ वही पृ० ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy