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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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अज्ञात कवि कृत 'अनाथी मुनि चौपइ'1 (६३ गाथा ) इसी शताब्दी की रचना है। इसका प्रथम पद्य प्रस्तुत है :
"सिद्धि सविह नइ करुं प्रणाम, ते पणि पामउं उत्तम ठाम । सिद्धि सविहूं नम करजोडि, भव भवना जिम भाजू खोडि ।१। उत्तराध्ययन में वर्णित अनाथी मुनि की कथा के आधार पर किसी अज्ञात कवि ने यह चौपइ लिखी है । इसका अन्तिम छन्द निम्नाङ्कित है :
"पक्षीनी परि हलूया थाय, मोह वगति वचरण मे मनसांहि । अनाथी कुमर तणी चउपइ, उत्तराध्ययन वी समई कही।६३।" इसकी भी भाषा सरल. स्वाभाविक मरुगर्जर है। लगता है कि ऐसी तमाम रचनायें सामान्य जनता के उपदेशार्थ सामान्य कवियों द्वारा जनभाषा में लिखी गईं और उनके विवरण आदि सुरक्षित नहीं रखे जा सके । इसकी प्रति मुनि जसविजय के संग्रह में सुरक्षित है। __ अज्ञात कवि कृत 'केसी गोयम संधि' भी इसी समय की रचना है। १४ वीं शताब्दी में संधि संज्ञक रचनायें लिखी जानी प्रारम्भ हुईं, और इनकी परम्परा १७ वीं शताब्दी तक चलती रही। धना संधि की चर्चा पहले की गई है। तेजा कृत 'आनन्द संधि', जयशेखर सूरि कृत 'शीलसंधि' आदि इसी प्रकार की रचनायें हैं जो अपभ्रंश-मिश्रित भाषा में लिखी गई हैं। श्री अ० च नाहटा ने अपने निबन्ध 'अपभ्रंश भाषा के संधि काव्य की परम्परा' में ऐसी रचनाओं का परिचय दिया है जो 'राजस्थानी निबन्ध माला' में प्रकाशित है। 'केसी गोयम संधि गाथा ७०' का परिचय श्री देसाई ने जै० गु० के० भाग ३ पृ० ४११ पर दिया है और उसे १४ वीं शती की कृति कहा है। उसकी अन्तिम कड़ी इस प्रकार है :
"इय करवि विचारुसंजमभारु, पालेविण जे मुक्ख गया। ते गोयम केसी चिति निवेसी झायह भवीय आणंद भया ।७०।" श्री देसाई ने जै० गु० क० भाग ३ खण्ड २ पृ० १४७४ पर केसी संधि' नामक एक कृति का उल्लेख १३ वीं शताब्दी में भी किया है । हो सकता है ये दोनों एक ही रचनायें हों या दोनों दो शताब्दियों की अलगअलग अज्ञात कवियों द्वारा लिखी गई दो रचनायें हों, यह अनिर्णीत है।
हेमतिलक सूरि शिष्य कृत हेमतिलक सूरि संधि' ( गाथा ४० ) भी इसी समय की रचना है। हेमतिलकजी नायोरु नगर के गंधी परिवार के बीजउ साहु के पुत्र थे । बालक का नाम दोलउ पड़ा । एक बार गड्डइगच्छ
१. श्री मो० द० देसाई-० गु० क. भाग ३ पृ० ४०८
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