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मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अज्ञात कवि कृत 'अनाथी कुलक' ( ३६ कड़ी ) का समय भी १४ वीं शताब्दी है । इसका प्रथम छन्द जिन वंदना से सम्बन्धित है यथा
"पणमिवि सामीय वीर जिणिद लोयालोय पयास दिणिदा। अन्नाथिय अजाणमेअ, भणिसि किंपहि तुहि निसुणेउ ।" अन्त में कवि कहता हैं : ... "केवल सरि सइवर आवेइ, क्रमि क्रमि सिद्धि सुष पामेइ । पढ़इ, गुणइ जो ऐह चरित्तो, विधिहुं थुणि उ तस जनम पवित्तो। ते संसार दुख परिहरी, जाइ बसेसि ते सिवपुरी।"
इसकी भाषा स्पष्ट और सरल मरुगुर्जर ( पुरानी हिन्दी ) है । 'ते संसार दुव परिहरी' अर्द्धाली तो तत्कालीन हिन्दी का भी अच्छा उदाहरण है। इसमें अनाथी मुनि का जीवनादर्श प्रस्तुत किया गया है। ___ अज्ञात कवि कृत 'धना संधि' (६१ गाथा) १४ वीं शताब्दी की रचना कही गई है। इसमें तपस्वी धन्ना के तप के माध्यम से तप का माहात्म्य समझाया गया है। इसका प्रथम छंद देखिये :--
"समरिय समरस तण उ निहाण, वीर जिणेसर तिहुयण भांण । वीर कहइ जो नवमइ अंगइ, धन्ना संधि कहिसू मन रंगइ।१।
प्रथम छंद की भाँति ६० वें छंद में भी वीर भाषइ' शब्द आया है और ऐसा लगता है कि यह 'वीर' शब्द कवि के नाम का सूचक है। छंद देखिये :
"सहस्स छत्रीस साहुणी ( सा) रऊ चद सहस्स मुनिवर परिवार । तेह मांहि धन्न तपसी दीषइ श्रेणिक आगलि श्री वीर भाषइ।"
यहाँ वीर भगवान् महावीर का भी अर्थ देता है । अस्तु; इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है :
"तपथी काया निरमल थाइ, कुमन कुचित्त मे दूरि पुलाई ।
अ तप सोहग-तरुवर कंद, तपि लहियइं जग परमाणंद ।" __ इसकी भाषा तत्कालीन लोक प्रचलित सरल मरुगुर्जर है। अज्ञात कवियों द्वारा लिखित १४ वीं शताब्दी में मरुगर्जर साहित्य के अन्तर्गत ऐसी छोटी-छोटी कृतियों का मिलना स्वाभाविक है क्योंकि उस समय तक इस नवोदित भाषा के साहित्य का सही मूल्याङ्कन न हो पाने के कारण रचनाओं और रचनाकारों पर पूरा ध्यान नहीं दिया गया होगा।
१. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४०७ २. वही ३ पृ० ४०८
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