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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रारम्भ में बारह व्रतों का माहात्म्य बताया गया है जिनमें अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि को गिनाया गया है। जिन मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार, जिनविंब की स्थापना और उनका महत्त्व बताया गया है । गुरु के सम्बन्ध में कवि आदरपूर्वक इस प्रकार लिखता है :--
"गुरु आवंता कीजइ अभिगमणउं दीजइ भक्ति थोभ वंदनउ।" समय के साथ मान्यतायें बदलती हैं। इसमें गिनाये सात क्षेत्रों में से आगम ग्रंथों का लेखन, पारायण, साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका का महत्त्व तो आज भी प्रासंगिक है किन्तु स्थानकवासी जैसे सुधारवादी सम्प्रदायों के लिए जिन विम्ब और जिन मंदिर का महत्त्व क्रमशः अप्रासंगिक होता जा रहा है। जिनभक्ति, गुरुभक्ति आज भी समग्र जैन समाज में आदर की वस्तु है अतः इस रास की उपयोगिता आज भी भाषा के अलावा धर्म की दृष्टि से भी अक्षुण्ण है। इसकी अन्तिम पंक्ति में 'जयवंत' शब्द आशीर्वचन ही लगता है किन्तु शायद यह कवि का नाम हो । पंक्ति इस प्रकार है :
"निम्मल जे ग्रह नक्षत्र तारिका व्यापई,
__ जयवंत श्री संघ अनइजिन सासणु । ११९ जिन पूजा के प्रसंग में नाना प्रकार के आभूषणों और फूलों का वर्णन भी कवि ने रुचि के साथ किया है । उस समय मंदिरों में जो तालबद्ध रास, डंडिया रास आदि खेले जाते थे उनका भी संकेत इसमें मिलता है यथाः
"बइसइ सहूइ श्रमण संघ सावय गुणवंता । जोयइ उच्छव जिनह भुवणि मनि हरष धरंता । तीछे तालारास पड़इ, बहु भाट पढ़ता । अनइ लकुटां रास जोवई, खेला नाचंता ।४८। सविहू सरीषा सिणगार, सवि तेवड तेवडा । नाचई धामीय रंग भरे तउ भावइ रुडा । सुललित वाणो मधुरि सादि जिणगुण गायंता । तालमानु छन्द गीत, मेलु वाजिंत्र वाजंता ।४९। तिविलां झालरि भेरु, करडिकंसाला बाजइं। पंचशब्द मंगलीक हेतु जिणभुवणइ छाजई। पंचशब्द वाजंतिमाटु, अंबर बहिरंती।
इण परि उच्छव जिणभुवणि, श्री संघु करतंउ ।५०।1 १. श्री अ० च० नाहटा-'परम्परा' पृ० १७२-१७३
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