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मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ___ अर्थात् पर्वत की ठंडी हवा यात्रा की सारी थकान हर लेती है और यात्री को नवस्फूर्ति प्रदान करती है।
चर्चरिका एक लोक काव्य है जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। इसमें निश्चित तिथि नहीं है किन्तु बहिक्ष्यिों के आधार पर यह १४वीं शताब्दी की रचना ठहरती है।
हेमभूषणगणि--आपने सं० १३४१ के आसपास 'युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि चर्चरी' लिखी ।। सं० १३४१ में जिनप्रबोध सूरि के पट्ट पर श्री जिनचन्द्र सूरि आसीन हुए। उन्हीं के सम्बन्ध में २५ पद्यों की प्रस्तुत रचना श्री हेमभूषण गणि ने उसी समय की है । इस रचना से सम्बन्धित उदाहरण नहीं प्राप्त हो सका किन्तु विषय वस्तु स्वयम् प्रकाशित है। __ आ० जिनदत्त सूरि से सम्बन्धित 'चतुष्पदी, फागु आदि अनेक रचनायें प्राप्त हैं किन्तु उनके रचनाकारों का नाम-धाम ज्ञात नहीं है।
अज्ञात कवि कृत रचनायें-अज्ञात कवियों की ऐसी कृतियों में 'जिनचन्द सरि फागु' २५ पद्यों की एक रचना है जो सं० १३४१ के आसपास ही लिखी गई होगी। इसके प्रारम्भ में पाटण के तीर्थंकर शान्तिनाथ की स्तुति है । यह तो स्पष्ट है कि कोई खरतरगच्छीय विद्वान् ही इसका लेखक है। यह पद महोत्सव वैशाख सं० १३४१ में हुआ था अतः रचना का प्रारम्भ वसंत श्री के वर्णन से हुआ है। इसमें मदन का आक्रमण और सूरि द्वारा मदन पराजय का रूपक बाँधा गया है। वसंत वर्णन सम्बन्धी एक उद्धरण प्रस्तुत है :___ "अरे पुरि पुरि आबँला मउरिया कोइल हरखियदेह ।
अरे तहिं ठए टुहकए बोलए मयणह केरिय खेह।" यह रचना प्राचीन फागु संग्रह में प्रकाशित है। इसका प्रारम्भिक छन्द निम्नलिखित है।
"अरे पणमवि सामिउ संत जु सिव वाडलि उरितारु अरे अणहिलवाडा मंडणड सव्वह तिहुयण सारु । अरे जिण पवोह सूरि पाटिहि सिर संगमु सिरिकंतु ।
अरे गाइवउ जिनचन्द सूरि गुरु, कामल देवि कउपुतु ।१। अन्त की दो पंक्तियाँ भी आगे दी जा रही हैं :
"सिरि जिणचन्द सूरि फागिहिं, गायहिं जे अतिभावि ।
ते बा उल अरु पुरुसला, विलसहिं सिवसुह सावि ।"२५। १. श्री अ० च० नाहटा परम्परा' पृ० १७३
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