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मरु गुजर जैन साहित्य "वसहि मग्गु जिणि पयड़ करि सहि, अणहिल पाटणि वाईय जगि जस ढक्क । सो जिणेसर सूरि गुरु रयणु मणि,
झायहिं जे नर ते संसारह चक्क ।" इसका अन्तिम पद्य भी भाषा के नमूने के लिए प्रस्तुत है :"एह गुरावली जो पढइ जो मणि अवधारइ रंगिहिं जो गायइ । सोममुत्ती गणि इय भणइ सो नरु संसारह दुहह जलंजलि देइ।"
ये सभी रचनायें १४वीं शताब्दी की अपभ्रंश मिश्रित मरुगुर्जर भाषा की कृतियाँ हैं। इनमें जिनेश्वर सरि और जिनप्रबोध सुरि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सूचनायें हैं । अतः काव्य की अपेक्षा खरतरगच्छीय आचार्य परम्परा का परिचय प्राप्त करने की दष्टि से इनका विशेष महत्त्व है।
सोलणु-आपकी रचना चर्चरिका ३८ पद्यों की है जो प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में प्रकाशित है। इसके प्रारम्भ में २४ जिन और सरस्वती की वन्दना है यथा :
"जिण च उबीस नमेविण सरसइ पय पणमेवि ।
आराहउं गुरु अप्पणउ अविचलु भाव घरेवि ।" इसके दूसरे छन्द में लेखक और रचना का नाम है यथा :
"कर जोडिउ सोलणु भणइ जीविउ सफल करेसु ।
तुम्हि अवधारह धंमियउ चच्चरि हउं गाएसु।"1 इसमें गिरिनार पर स्थापित नेमि के दर्शनार्थ तीर्थ की यात्रा का महत्त्व बताया गया है । यात्रा के कष्ट से कुछ लोग विरत हो जाते हैं पर जो उत्साही सच्चे भक्त हैं वे सहर्ष जाते हैं और दर्शन का आनन्द प्राप्त करते हैं यथा :--
"पाइ चहुट्टइ कक्करीउ उन्हालइ लूबाई ।
जे कायर ते बलिया जे साहसिय ते जाइं।" पर्वत पर पहुंचकर यात्री गिरनार की प्राकृतिक शोभा का आनन्द पाता है यथा :
"नीझर पाणिइ खलहलइ वानर करहिं चुकार,
कोइल सदु सुहावणउ तहिं डुंगरिगिरिनार ।" इसका अन्तिम पद्य देखिये :
"डंगरडा अधोकरि लग्गउ सीयलि वाउ,
हूय पुण नवदेहडी अमुंलि कियउ पसाउ।" १. प्राचीन गु० का० सग्रह पृ० ७१.७२ २. वही पृ०७४
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