________________
२०४
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
"परणिसु संयमसिरि वर नारी भाइ माए मज्झु मणह पियारी; जासु पसाइण वंछि उ सिज्झए वलवि न संसार मि पडिज्जए।१।" इसका आदि का छंद इस प्रकार है :"चिन्तामणि मणि विवियत्थे, सुहियय धरेविण पास जिण,
जुग पवइ जिणेसर सूरि मुणिराउ थुणिस हउ भत्तिआपणउ ।।" अन्त अह विवाहल उ जे पढ़हि जे दियहि खेला षेलि रंग भरि ।
ताह जिणेसर सूरि सुपसन्नु इमि भणइ भविय गणि सोममुत्ति ।३३।'
इन पंक्तियों से यह संकेत मिलता है कि यह रास मूलतः खेलने गाने के लिए लिखा गया था और इस प्रकार के रास बाद में उत्तरोत्तर आकार में बड़े होते गये तथा चरित काव्य बन कर केवल पाठय-विधा के रूप में परिवर्तित हो गये।
आपकी दूसरी रचना 'जिन प्रबोध सूरि चर्चरी १६ गाथा की रचना सं० १३३२ के आसपास लिखी गई क्योंकि इसमें जिनप्रबोध सूरि के पद स्थापना का वर्णन है, यथा :
"विजयउ विजयउ कोडिजुग जिन प्रबोध सूरिराउ, विफ्फुरत वर सुरि गुण रयण अलकिंयकाउ।१। इसका अन्तिम पद्य इस प्रकार है :
"जिनप्रबोध सूरि गुरु तणिय जे चाचरि पभणति,
सोममुत्ति गणि इम भणइ पुण्य लच्छि ति लहति ।१६।"2 जिनप्रबोध सूरि का आचार्य काल सं० १३३१ से ४० तक का है। जिनप्रबोध सरि बोलिका मात्र १२ गाथा की छोटी रचना है। इसके आदि और अन्त के पद्य निम्नाङ्कित हैं :आदि ‘तियलोय सामिणि हंस गामिणि, देव कामिणि पणमिया।
___ अन्नाण वल्लरि दलण कत्तरि, मणि धरेविण सारया । अन्त "लघेवि वेगिण जिमु भवोयदि, जिट्ठि पुरु पावहु थिर ।
इमि सोममुत्ती भणइ तसु पय, भत्तउ वयरं वरं ।१२।। इनकी चौथी रचना 'गुरावली रेलुआ' ( १३ गाथा ) में जिणेश्वर सूरि की वन्दना है । इसके आदि का पद्य इस प्रकार है :
१. जैन ए० गुजर काव्य संचय पृ० २२५ २. श्री अ० च० नाहटा जै० मरु गु० क० पृ० २४ और २५ ३. श्री मो० द० देसाई जै० गु० क. भाग १ पृ० ७ और भाग ३ पृ० १४७५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org