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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२०३ सुधाकलश-आप मलधारी राजशेखर सूरि के शिष्य थे। आपने सं० १३८० में संगीतोपनिषद् की रचना की है जिसमें उदाहरणस्वरूप बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ तत्कालीन लोकभाषा में रचित गीतों की मिलती हैं जिनसे जनता की बोलचाल की भाषा का अनुमान करने में सहायता हो सकती है। चूंकि यह मरुगुर्जर की रचना नहीं है इसलिए यह सूचना मात्र अलम् हैं।" ____सोममूर्ति-आप खरतरगच्छीय आचार्य श्री जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे। आपने अपने गुरु श्री जिनेश्वर सूरि के स्वर्गवास के तुरन्त बाद सं० १३३१-३२ के आसपास 'जिनेश्वर सूरि संयम श्री विवाह वर्णनारास' लिखा। आपकी अन्य रचनायें 'जिन प्रबोध सूरि चर्चरी', 'जिन प्रबोध सूरि बोलिका' और 'गुरावली रेलुआ' हैं। प्रथम रचना 'श्री जिनेश्वर सूरि संयम श्री विवाह वर्णनारास' ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह और जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय नामक दो संग्रहों में प्रकाशित प्रसिद्ध रचना है। यह ३३ पद्यों का प्राचीन काव्य है जिसके नायक खरतरगच्छीय आचार्य जिनेश्वर सूरि की दीक्षा खेडा ग्राम में दस वर्ष की अवस्था में आ० जिनपति सूरि द्वारा सम्पन्न हई थी। इसमें 'दीक्षा' को संयमश्री नाम देकर उसके साथ जिनेश्वर सूरि के विवाह का आध्यात्मिक रूपक प्रस्तुत किया गया है। जिनेश्वर सरि के बचपन का नाम अम्बडकुमार था। वे अपनी माँ से संयमश्री के साथ विवाह का आग्रह करते हैं और खेड नगर में वह दीक्षाकार्य ( विवाह ) सम्पन्न होता है। रास में इसका विवरण दिया गया है। आप जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे। आपके पिता मरोटकोट निवासी श्री नेमिचन्द्र भण्डारी थे और आपकी माता का नाम लखमा दे था। आपका जन्म सं० १२४५ में और दीक्षा सं० १२५५ में हई तथा आपका दीक्षा नाम वीरप्रभ पड़ा । खरतरगच्छ की पट्टावली से पता चलता है कि सं० १२७८ में सर्वदेवाचार्य द्वारा जालौर में आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया था और आपका नाम जिनेश्वर सूरि पड़ा था। ___विवाहला' काव्य की परम्परा भी १४ वीं शताब्दी से ही प्रारंभ हुई और १७-१८ वीं शताब्दी तक प्रचलित रही। इसका विशेष परिचय श्री आ० च० नाहटा ने 'विवाहला और मंगल काव्य की परम्परा' नामक लेख में दिया है। इसकी भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव इसकी प्राचीनता का प्रमाण है । भाषा के नमूने के लिए कुछ पद्य यहाँ दिये जा रहे हैं। बालक अम्बड संसार की असारता का अनुभव करके अपनी माता से आग्रह करता है :--
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