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मरु-गुर्जर जैन साहिन्य का बृहद् इतिहास 'विवाहलउ' नायक काव्यप्रकार जैन कवियों में लोकप्रिय रहा है जिसमें आचार्यों के संयम धारण और दीक्षा-महोत्सव का प्रायः विवाह की भाँति वर्णन रहता है। __सारमूर्ति-आप खरतरगच्छीय कवि थे। आपने सं० १३९० ज्येष्ठ शु० ६ सोमवार को 'जिनपद्म सूरि पट्टाभिषेक' नामक एक रचना की जिसमें जिनपद्म सूरि के आचार्य पद-महोत्सव का वर्णन है। जिनपद्म सूरि को श्री तरुणप्रभ सरि के आचार्यत्व में ज्येष्ठ शु० ६ सोमवार वि० सं० १३९० को पट्टाभिषिक्त किया गया था और नाम जिनपद्म सूरि रखा गया था, अतः यह उसी समय की रचना है। जिनपद्म सूरि के पिता खीमड़ वंशीय लक्ष्मीधर के पुत्र श्री आबाशाह थे । रास से यह भी सूचना मिलती है कि यह महोत्सव शाह हरिपाल ने बड़े उत्साहपूर्वक सम्पन्न कराया था। जिनपद्म सूरि के गुरु आचार्य जिनकुशल सूरि एक बार विहार करते देराबर पधारे और वहाँ कई धार्मिक कृत्य सम्पन्न कराये। अपना आयुष्यपूर्ण जानकर श्री जिनकुशल सूरि ने तरुणप्रभ को आदेश देकर स्वर्गारोहण किया था, तदनुसार श्री तरुणप्रभ सूरि ने जिनपद्म को पट्टासीन किया। इस रास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :--
“सुरतरु रिसह जिणिंद पाय, अनुसर सुयदेवी सुगुरु राय जिणचन्द सूरि गुरु चरण नमेवी। अमिय सरिसु जिणपद्म सरि पय ठवणह रास ।
सवणं जल तुम्हि पियउ भवि लहु सिद्धिहिं तासू।" इसका अन्त निम्नाङ्कित पंक्तियों से हुआ है जिनमें रचनाकाल आदि दिया गया है : -
"विक्कम निव संवछरिण तेरह सइ नऊओहि (सं० १३९०) जिढि मासिसिय छट्ठि तहि, सुह दिणि ससिवारेहि । इहुपय ठवणह रासु, भाव भगति जे नरदियहि,
ताई होइ सिववासु सारमुत्ति मुणि इम भणइ ।' यह रास ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह में प्रकाशित है और कुल २९ पद्यों की रचना है। इसके उद्धरणों का सन्दर्भ उसी संग्रह में देखा जा सकता है। इसकी भाषा मरुगुर्जर है जिसपर राजस्थानी का प्रभाव थोड़ा प्रकट होता है। इस प्रकार की रचनाओं का मात्र ऐतिहासिक सूचनाओं की दृष्टि से महत्त्व होता है।
१. ऐ० जे० काव्य संग्रह और श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भा०३ पृ० ४०६
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