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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद इतिहास
"सड्डु सगुणहु जे न्हवहि चंदप्पहं, विहिय मुहकोस बहु तो सदयकुप्पहं । कुगुरु कुग्गाह परिचत्तइय विहिरया, लहहिं णे झत्ति निव्वाण सुहसंपदा ।"
श्रीधर - - भविष्यदत्त कथा, चन्द्रप्रभचरित, वड्ढमाण चरिउ, शान्तिजिनचरित आपकी उपलब्ध रचनायें हैं आपका रचना काल श्री कामता - प्रसाद जैन १४वीं शताब्दी बताते हैं । पं० परमानन्द जैन एवं अन्य बहुतेरे विद्वान् इन रचनाओं को अधिक से अधिक १३ वीं शताब्दी की बताते हैं । इन कृतियों की भाषा भी मरुगुर्जर की अपेक्षा अपभ्रंश के ज्यादा करीब है । इसलिए इन्हें प्राचीन कवि मानकर इनका उल्लेख पहले कर दिया गया है ।
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अन्त
शान्तिभद्र -- आपकी रचना का नाम 'चतुर्विंशति नमस्कार' ( २५ गा० ) है जिसका रचनाकाल १४ वीं शताब्दी है किन्तु संवत् निश्चित नहीं हो सका है । इसकी प्रतिलिपि सं० १३८५ की लिखित प्राप्त होने से यह १४ वीं पूर्वार्द्ध की रचना होगी । इसके प्रारम्भ का छन्द, जो यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, पढ़ने से इसकी भाषा अपभ्रंश से प्रभावित प्रतीत होती है यथा :-- "पढम जिणवरजण मणानन्द,
सुरनाह संथय चलण भरह जणय जय पढम सामिय । संसार वण गहण दव दत्त दोस अपवग्ग गामिय । लोयालोय पयासयर पयडिय धम्माहम्म सुविाणजं तुहु रिसय जिण, इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये "जसु सावयरसाहु वर चित्त
दुज्जय
निज्जिय कम्म |9|
सुपसत्थ सुपसन्न मण निसि विरामि थिरु करिवि नियमणु चवीह तित्थयर सुप्पहाइ जे थुणहि अणु दिणु ते संसारि महाजल हि, उत्ताहि अप्पाणु । पावह दुक्खह खउ करहिं 'संतिभदु' कल्ला | २५ |
--;
इसकी भाषा को देखते हुए इसे शुद्ध मरुगुर्जर की रचना नहीं कहा जा सकता । इसमें जान-बूझकर 'संतिभदु' ने 'ण' की अतिशत आवृत्ति कर रखी है । द्वित्त की प्रवृत्ति जैसे 'दुज्जय' निज्जिय, सुप्पहाइ, अप्पाणु आदि को
१. श्री कामउाप्राद जैन - हिन्दी जे० सा० का स० ० पृ० ३२ २. श्री प्र० च० नाहटा - मरुगुर्जर जैन कवि पृ० ३६
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