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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१९९ पास जिणंद पसाउ सानिधि सासणदेवि तणइ,
जे उपदेश कराइ ते मणवंछिय सुह लहइ।" आपकी तृतीय कृति 'आनन्द प्रथमोपासक संधि' के आदि और अन्त की पंक्तियाँ भाषा के नमूने की दृष्टि से आगे उद्धत की जा रही हैं :-- आदि "अरहँ देवो सुगुरु सुद्ध धम्म पँचनवकारो,
धन्नाणं कयत्थाणं निरन्तर वसइ हिययमि।" अन्त "सिरि रयणसिंह सूरि गुरुवओसि,
सिरि विणयचंद तसु सीसि लेसि । अज्झयण पढमु अह सत्तमंगि,
उद्धरिय संधि बंधेण रंगि।" प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में उपदेशमाला कथानक ( उवजेसमाल कहाणय ) को भी श्री विनयचन्द्र की रचना बताया गया है। जै० गु० कवियों भाग १ में इसका रचनाकर्ता श्री विनयचन्द्र सूरि को लिखा गया है किन्तु भाग ३ में उन्होंने इसका सुधार करके श्री उदयधर्म को इस रचना का लेखक बताया है। श्री अगर चन्द नाहटा ने प्रारम्भ से ही उदयधर्म को उपदेशमाला कथानक का लेखक घोषित किया था अतः इससे पूर्व उदयधर्म के नाम पर इस कृति का विवरण दिया जा चुका है। अब यह निर्णय सुधी जनों को करना है कि वस्तुतः विनयचन्द्र सूरि 'उवअसमाला कहाणय' के लेखक हैं अथवा उदयधर्म ।।
श्री विनयचन्द की तीन रचनायें ही उन्हें मरुगुर्जर का एक श्रेष्ठ कवि साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। इन रचनाओं की भाषा से उवसमाला कहाणय की भाषा की संगति भी नहीं बैठती क्योंकि उसकी भाषा पर अपभ्रंश का भरपूर प्रभाव दिखाई पड़ता है जब कि इन तीनों रचनाओं की भाषा स्वाभाविक मरुगुर्जर है । आपने सं० १३२५ में पर्युषण कल्पसूत्र पर निरुक्त भी लिखा था। इस प्रकार आप जैन धर्म के आचारवान सूरि, उत्तम कवि और निरुक्तकार हैं।
वीरप्रभ--आपकी रचना 'श्री चन्द्रप्रभ कलश' (१६ गाथा) उपलब्ध है जिसका आदि अन्त आगे उद्धत किया जा रहा है :-- आदि "अत्थि इह भरहिवर नयरि चंदाणणा,
जत्थ रेहंति नर-नारी चंदाणणा ।। १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु. क. भाग ३ पृ० ४०० २. श्री अ० च० नाहटा-म० गु० ज० क० पृ० ३८
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