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________________ १९७ मरु-गुर्जर जैन साहित्य समरिय सामिणि सारद देवि, पढ़िसिउं जिण वीसइ संखेवि । संवत् तेर अठसटुइ माह मसवाडइ, पाँचमि हुई शुक्रवारहि पहिलउ पखवाडर। इय आरम्भिय अभिनव रासो जिम हुई भमण मरण विणासो । मुझ मूरख नवि बोलवा ढाऊं, पुण गुरुयां श्री संघ पसाउ॥1 इसकी अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है :'लोटा गणे बस्तिग भणइ ओ नरे, सामि वीनती अवधारी । कर्म नटावइ नचावीउं नरे, चउदह रज्जह मझारि ।। यह रचना 'जनयुग' पु० सं० ५ पृ० ४३८ पर प्रकाशित है। वस्तिग के नाम से कुछ और रचनायें भी मिली हैं इनमें से चिहंगति चौ० काफी प्रसिद्ध कृति है, किन्तु इसका रचना काल निश्चित न होने से श्री मो० द० देसाई इसे १५ वीं शताब्दी की रचना बताते हैं। ऐसा लगता है कि उनका यह अनुमान इस रचना की सं० १४६२ की लिखित प्रति पर आधारित है। यदि हस्तलिखित प्रति १५ वीं शताब्दी की प्राप्त होती है तो यह कहाँ सिद्ध होता है कि कवि भी १५ शताब्दी का होगा। प्रस्तुत कवि १४ वीं शताब्दी की रचना 'वीरविहरमान' का लेखक भी हो सकता है । वस्तिग एक प्रसिद्ध जैन कवि समझे जाते हैं और उनकी एक ही रचना उनकी कीर्ति का आधार न होगी। अतः ऐसा अनुमान है कि चिहंगति चौ० भी उन्हीं वस्तिग की रचना होगी। इसमें जीव की चार गति अर्थात् मनुष्य, तिर्यंच, नरक और देव बताई गई है। इसकी ९४ चौपाइयों में अनेक योनि में भटकते चारों प्रकार के जीवों को भयंकर दुख झेलते हुए बताया गया है। उनमें से अत्यन्त पुण्यवान जीव को उत्तम गुरु मिलने पर पाँचवीं गति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके आदि की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं : सेत्तुंज वंदिअ तीरथराउ, गोयम ( गुरु या ) गुणहर करउ पसाउ । वागवाणि हउं समरइ देवि चहंगति भमणि कह संखेवि ॥ इसकी अन्तिम पंक्तियाँ भाषा के नमूने के लिए उद्धृत की जा रही हैं - मूरख माहि मूंपहिलीलीह. जिण धर्म माहि वसउ सवि दीह । कालउं गहिलऊं बालिठाऊं, तेऊ पुण सुह गुरु तणउ पसाउ॥ रामतिनी छइ भू धणी टेव, गुरुया संघनी नितु करु सेव । अज्ञान पणइ आसातन थाई, वस्तिग लागइ श्री संघ पाय ।। ९४ ।। १. श्री मो०६० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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