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मरु गुजर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आसपास हुई होगी । यह रास जालौर के शान्ति जिनालय में अभिनीत भी किया गया था जिसका आधार निम्न पंक्तियाँ हैं
"जे संती सरबारि परि नच्चहि गायहि विविध,
ताह होउ सविवार, खेला खेली खेम कुशल ॥५७॥ ऐहुरासु जेदिति खेला खेली अइ कुशल,
बंभ संति तह संति, मेघनादु विखेतल करल 1960 एहुरासु वहु भासु, लच्छि तिलय जिणि निम्मयउ,
ते लहंति सिववासु, जेनियमणि ऊलटि दियहिं । ५९॥ महि कामिणि रवि इंदु कुंडल जुयलिण जास हइ,
ताम संति जिण इंदु अनुइय रासु विचिरु जयउ ॥६०॥३
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रास से सम्बन्धित कुछ अन्य पंक्तियाँ आगे उद्धृत की जा रही हैं : " जालउरि उदयसिंह रज्जि सोवनगिरि, उवरिस्से संति ठाविउ जिणेसर, सुरी पवर पासाय मझंमि संवच्छरे फगुण सिय चउत्थि तेरहइ तेरूत्तरे |४८" अर्थात् यह रास उदयसिंह के समय सं० १३१३ फागुन चतुर्थी को लिखा गया ।
इस रास की भाषा को श्री नाहटाजी ने राजस्थानी कहा है । राजस्थान में रचना होने के कारण इसकी भाषा पर राजस्थानी प्रभाव भले ही ज्यादा हो पर इसकी भाषा वस्तुतः मरुगुर्जर ही है । प्राचीन रासों का लघु आकार नृत्य और अभिनय के लिए सुविधाजनक होता था । यह रास भी उसी प्रकार का लघुकाय होने के कारण अभिनीत हुआ होगा । यह रास सम्मेलन पत्रिका के ४७।४ भाग में प्रकाशित हो चुका है ।
वस्तिग या वस्तिभ - श्री नाहटाजी ने लेखक का नाम वस्तिभ लिखा है किन्तु श्री मो० द० देसाई ने इन्हें वस्तिग या वस्तुपाल बताया है यह प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया जाय कि ये वस्तुपाल ( वस्तिग ) प्रसिद्ध: अमात्य वस्तुपाल नहीं हो सकते क्योंकि वे १३ वीं शताब्दी में हो गये । उनका समय सं० १२७५ से १३०३ तक माना जाता है जब कि प्रस्तुत वस्तिग १४ वीं शताब्दी के कवि हैं । इनकी रचना बीस विहरमान रास ( स्तव ) सं० १३६८ माह शुदी ५ शुक्रवार को लिखी गई है। रास के आदि में स्वयम् लेखक ने रचनाकाल इस प्रकार बताया है :--
विहरमान तित्थयर पाय कमल नमेविय, केवलधर दुन्नि कोडि
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सवि साधु जिण चउवीसइ पाय नमेसुं, गुस्यां सहि गुरु भत्ति करेसुं । १. श्री अ० च० नाहटा 'परम्परा' १६८ ( यह रास नाहटाजी के संग्रह में स० १४९३ की लिखित प्रति में सुरक्षित है )
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नमेविअ ।
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