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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१९५ रचना अवश्य ही १४ वीं शताब्दी की होगी। यह कवि मालवा के गोणंद का निवासी और श्री रयणदेव का पुत्र था । यह चरिउ २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ के चरित्र पर आधारित है। इसमें राजीमती की वियोग दशा का मार्मिक वर्णन किया गया है। इसमें धर्म-उपदेश के साथ नगरों का वर्णन एवं वियोग वर्णन मुख्य रूप से सु दर बन पड़ा है। इसकी भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । इसमें मुख्य रूप से अपभ्रंश के छन्दों-पद्धडिया, धत्ता इत्यादि का अधिक प्रयोग किया गया है। कथा सुपरिचित है। नेमिनाथ बलि पशुओं को देख विरक्त हो जाते हैं और तपश्चर्या के लिए चले जाते हैं। राजीमती विरह से व्याकुल हो तड़पने लगती है। इसमें उपदेशात्मक स्थल पर्याप्त हैं फिर भी काव्यात्मक स्थलों से यह अछुती रचना नहीं है। इसकी भाषा का उदाहरण देखिये :
"जसु गेहि अण्णु तसु अरुइ होइ, जसु भोजसत्ति तसु सगुण होइ। जसु दाण छाहु दविणु गत्थि, जसु दविण वासु अइ लोहु अत्थि । जसु मयण राउ तसु णत्थि भाम, जसु भाम तासु उच्छवण काम ।"1
इसकी भाषा में कुछ अपभ्रंश का पुट होते हुए भी प्रसादगुण सम्पन्न एवं सरस भाषा है। इसमें सुभाषितों और सूक्तियों का समावेश करके कवि ने भाषा को अधिक प्रभावशाली बना दिया है।
लक्ष्मीतिलक उपाध्याय --आप खरतरगच्छीय आचार्य श्री जिनेश्वर सूरि के शिष्य और अभयतिलक के अनुज तथा गुरुभाई थे। आप बड़े विद्वान् एवं उत्तम कवि थे। आपने सं० १३११ में १०१३० श्लोकों का बृहद् काव्य 'प्रत्येकबुद्धचरित्र' पालणपुर में लिखा। आपकी दूसरी कृति शान्तिनाथदेवरास सं० १३१३ में लिखी गई जिसकी कुल पद्य संख्या ६० है। आपने सं० १३१७ में 'श्रावकधर्मप्रकरणबृहत्वृत्ति' जालौर में लिखी जिसमें १५१३१ श्लोक हैं। इनमें से शान्तिदेवरास ही मरुगुर्जर की रचना है। इस रास में १६ वें तीर्थंकर शान्तिनाथ का चरित्र संक्षेप में किन्तु सुन्दर ढंग से कहा गया है। आ० जिनपति सूरि ने सं० १२५८ में 'उद्धरण कारित शान्ति जिनालय' की प्रतिष्ठा खेड़नगर में की थी। सं० १३१३ में उदय सिंह के राज्यकाल में आ० जिनेश्वर सूरि ने जालौर में शान्ति जिनालय की प्रतिष्ठापना की। उसी ऐतिहासिक घटना पर यह रास आधारित है। अतः इसकी रचना सं० १३१३ या ठीक उसी के
१. हि० सा० का० ० इति० भा० ३ पृ० २६५ (ना० प्र० सभा, काशी)
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