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म गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
"असुर सुरिन्द नरिन्द विंद, वंदिय पय पउमह । सन्ति जिणंदह न्वहण समउ, वज्जिय छल छडमह । अवर कज्ज सावज्ज सव्वि, वज्जिय कय पुन्नह । नवउ कलसु हउं भणिसु तुहि, भवियहु आपन्नहु 191 " इसके अन्तिम दो छन्द निम्नलिखित हैं।
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"दप्पण भद्दासण नंदिवत्त, सिरिवच्छ मच्छ तह कलस जुत्त । वर वद्धमाण सत्थिय विसिट्ठ, जिण पुरओ विहि इय मंगलट्ठ | इय सन्ति जिदह उवरि गिरिदह, अमरइहि किउवन्हवणु जिम, तिव तुम्हिवि न्हावउ जिम सुहु पावउ, रामभद्दु पभणेइ इम ।" भावक लखमसी - आपकी कृति 'जिनचन्द्रसूरिवर्णनारास' संवत् १३४१ के आसपास की लिखी ४७ पद्यों की रचना का उल्लेख डॉ० हरीश ने किया है। जिनचन्द्र सूरि का आचार्य काल सं० १३४१ से १३७६ तक स्वीकृत है । अतः रचना निश्चय ही १४ वीं शताब्दी की होगी । इसमें आ० जिनचन्द्र सूरि के जन्म, दीक्षा, पदोत्सव के बाद अन्त में गुरु परम्परा का वर्णन है । इसके आदि और अन्त के पद्य उद्धृत हैं" पास जिणेसर वीतराहु, पणम विणुमत्ति । कर जोडति सुय देवि नमिवि कारउ विन्नत्ति ।
आदि
चरिउ रइसु मणि रायहंसु पहु जिणचंद सूरि । नहुँ भवियहु भावसारु गय कलिमल दूरि |91'
अन्त "जुग पहाण पहु जिणचंद सूरि, पयठउ निय पयाव जसु पूरि । लक्खम सीहु वन्नवइ अवधारि, अम्ह हिव दग्गइ गमणु निवारि ॥ ४७|” लक्खण ने वि० सं० १३१३ में अपने आश्रयदाता मन्त्री कृष्ण आग्रह पर 'अणुवयरयणपइउ' की रचना की है। इसमें श्रावकों के पालन करने योग्य अणुव्रतों और गृहस्थ धर्म के नियमों का वर्णन किया गया है । नाना व्रतों का महत्त्व प्रकट करने के लिए सरस शैली में नाना कथायें कही गई हैं, किन्तु यह रचना निश्चय ही अपभ्रंश की है अतः इसका विशेष विस्तार अपेक्षित नहीं है । इनकी एक छोटी रचना 'चन्दन छुट्टी कहा' भी प्राप्त है किन्तु उसकी भाषा भी अपभ्रंश ही है ।
लाख ( लक्ष्मण देव ) - आपने ४ संधियों में 'मिणाह चरिउ' की रचना की है जिसकी हस्तलिखित प्रति सं० १५१० की प्राप्त है अतः यह
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आदि
१. श्री अ० च० नाहटा, मरु गु० जे० कवि पृ० ४२-४३
२. डॉ० हरीश - ' आदिकालीन हिन्दी साहित्य शोध' पृ० २५६
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