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मरु-गुर्जर जैन साहित्य इसका संक्षिप्त कथानक इस प्रकार है। मगध देश में वसन्तपुर के नगरसेठ का पौत्र जिनदत्त बड़ा योग्य एवं सुन्दर था । वह कई प्रदेशों विशेषतया सिंहल द्वीप आदि की यात्रायें करता है और कई सुन्दरियों से विवाह करता तथा अतुल सम्पत्ति प्राप्त करता है। इसके कथानक में भी चामत्कारिक घटनाओं और अलौकिक कार्यों का बाहुल्य है। यह रोमांचक कथाकाव्य परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। ऐसी कथाओं में कथानायकों का चरित्र अद्भुत शौर्य, अलौकिक प्रतिभा और चामत्कारिक शक्तियों से सम्पन्न दिखाया जाने की रूढ़ि प्रचलित हो गई थी। ऐसी रचनाओं के प्रारम्भ में वीर, श्रृंगार से सम्बन्धित युद्ध और विवाह आदि की अनेक घटनायें और उनके पश्चात् नायक को अपने पूर्वभवों का ज्ञान, अन्ततः वैराग्य तथा संयम साधना द्वारा निर्वाण की प्राप्ति का वर्णन करना इनकी बधी बधाई परिपाटी थी।
भाषा --जिणदत्त चरित की भाषा को पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर कहना उचित है। भूमिका में विद्वान् सम्पादकद्वय ने लिखा है :--
"जिणदत्त चरित की भाषा को हम पुरानी हिन्दी के नाम से सम्बोधित कर सकते हैं।"1 अपभ्रंश एवं आधुनिक भाषाओं के बीच की भाषास्थिति का परिचय देने वाली रचनाओं में इसका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ___ काव्य रूप की दृष्टि से यह एक चरित काव्य है जिसका नायक सेठ जिणदत धीरोदात्त, वीर, साहसी एवं अनेक सद्गुणों से सम्पन्न है । अपने पराक्रम से वह राजा बनता है किन्तु अन्त में संयम धारण करके मानवजीवन का परमलक्ष्य-निर्वाण प्राप्त करता है। रसों की दृष्टि से विचार करने पर इसमें श्रृंगार सम्बन्धी कई सुन्दर स्थल मिलते हैं जैसे विलासमती का सौन्दर्य वर्णन, सिंहलद्वीप की राजकुमारियों का रूपवर्णन आदि । इसी प्रकार अनेक युद्धों के बीच वीर रस का भी अच्छा परिपाक जगह-जगह हुआ है । प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णन, विदेश यात्रा वर्णन, सामाजिक जीवन का वर्णन आदि कई उत्तम वर्णनात्मक स्थल हैं। श्रृंगार वर्णन का एक नमूना देखिये :--
"चंपावण्णी सोहइ देह, गल कंदलह तिण्णि जसु रेह ।
पीणत्थणि जोव्वणमयसार उर पोटी कडियल वित्थार ।" काव्य में कहीं कहीं कवि ने अपना नाम भी दिया है यथा :--
"नाद विनोद कथा आगली, पहिरी रयण जडी कंचुली । इकु तहि अस्थि देह की किरणी अवर 'रल्ह' पहिरइ आभरणी ।।" १. जिणदत्तचरित 'भूमिका' पृ० २३
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