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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दानी तथा आचारवान् थे । इन्होंने कई पुस्तक भण्डार और जिनालय आदि बनवाये तथा बड़ा यश अर्जित किया था । इनका पुत्र झाझड़ बड़ा प्रसिद्ध व्यापारी और समाज ये अवन्ति प्रदेशान्तर्गत नान्दुरी के निवासी थे । सुकृतसागर में इनका विवरण उपलब्ध है | "
हितैषी व्यक्ति था । रत्नमंडन मणि के
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रह ( राज सिंह ) आपकी प्रसिद्ध रचना 'जिणदत्त चरित्र' सं० १३५४ में लिखी गई है । कवि ने स्वयम् रचनाकाल इस प्रकार बताया है" संवत तेरह से चउवण्णे भादव सुदि पंचम गुरु दिण्णे । स्वाति नखत चंदु तुलस्ती कवइ रल्हु पणवइ सुरसती । २८| 2
सर्वप्रथम राजस्थान के जैन शास्त्रभांडारों की ग्रन्थसूची भाग ४ में उसके सम्पादक डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने इसके हस्तलिखित प्रति की सूचना दी थी । यह प्रति जयपुर के दिगम्बर जैन मन्दिर पाटौदी के शास्त्र भण्डार से उपलब्ध हुई । उसी प्रति के आधार पर इस कृति का सम्पादन डॉ० कासलीवाल और डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने किया है । लिपिकार ने इसे कथा और चउपइ नाम दिया है और कवि 'रल्ह' ने इसे चरित, पुराण और चउपइ कहा है । जैन चरित काव्यों में जीवनचरित्र और कथा - आख्यायिका के लक्षणों का समन्वय किया गया है अतः इसे चरित्रकाव्य ही कहना उचित है । इसकी कुल पद्य संख्या ५४३ है |
कथानायक जिणदत्त की कथा जैन साहित्य में लोकप्रिय रही है । इसकी चर्चा प्राकृत कोष 'अभिधान राजेन्द्र' में और नेमिचन्द्र के शिष्य सुमतिगण की प्राकृत रचना में हुई है । संस्कृत में आचार्य गुणभद्र कृत जिनदत्त चरित्र और अपभ्रंश में कवि लाखू ( लक्ष्मण ) कृत जिण दत्तकहा (सं० १२५७ ) प्राप्त हैं । रल्ह ने इन्हीं के आधार पर जिणदत्त का चरित्र चउपइ छन्द में प्रस्तुत किया है । कवि ने लिखा है
"मइ जोयउं जिणदत्त पुराणु, लाखु विरयउ अइस पमाणु ।” रल्ह के बाद भी इसकी परम्परा चलती रही और रयधू, गुणसमुद्र सूरि तथा बख्तावर सिंह आदि कवियों ने इस पर आधारित अपनी रचनायें लिखीं ।
१. मो० द० देसाई - जैन सा० नो इतिहास पृ० ४३०
२. कवि के पिता का नाम अभइ या आते और माता का नाम सिरीआ था । वे जैसवाल जाति के श्रावक थे । कवि का नाम रल्ह और राजसिंह दोनों मिलता है । दे० - जिनदत्तचरित स० डॉ० कासलीवाल एवं डॉ० माताप्रसाद गुप्त ।
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