________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१८७ इसकी अन्तिम पंक्तियों में लेखक और रचना से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ है अतः उन्हें भी आगे उद्धृत किया जा रहा है
'संघ सहिउ फेरु इम भणइ, इत्तिय जुग पहाण जो थुणइ।
पढ़इ गुणइ निय मणि सुमरेइ, सो सिवपुरि वर रज्जु करेइ ।' रचनाकाल और स्थान-तेरह सइतालइ मह मासि, रायसिहर वाणारिय पासि ।
चन्द्र तणुभवि इय च उपइय, कन्नाणइ गुरु भत्तिहि कहिय । अन्तिम और २८ वां छन्द इस प्रकार हैं
'सुरगिरि पंचदीव सब्बेवि, चंद सूरि गह रिक्ख जिवेवि,
रयणयरधर अविचल जाम, संघु चहुविवह नंदउ ताम।1 इस प्रकार हम देखते है कि चतुष्पदिका में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि का गुणानुवाद किया गया है और इसकी भाषा मरुगुर्जर है तथा इसमें चौपई छन्द का प्रयोग किया गया है। गरावली में गुरु परम्परा का वर्णन किया जाता है और उसका सम्प्रदाय के इतिहास की दृष्टि से कुछ महत्व होता है । इसमें गुरुओं का गुण वर्णन किया जाता है।
महेश्वर सूरि -- आपकी कृति 'संयममंजरी' ३५ दोहों की छोटी रचना है जिसमें रचना और रचनाकार का कोई विवरण नहीं दिया गया है परंतु इसकी हस्त लिखित प्रति सं० १३६५ की प्राप्त है अतः यह इससे पूर्व की रचना होगी। इसी समय की लिखित महेश्वर सूरि कृत 'कालकाचार्य कथानक' की हस्त लिखित प्रति भी प्राप्त है । हो सकता है कि इन कृतियों के रचनाकार एक ही महेश्वर सूरि हों जिनका समय १३ वीं शताब्दी का अन्तिम या १४ वीं शती का प्रथम चरण होगा। इतना निश्चित है कि 'संयममंजरी' की रचना सं० १३६५ से पूर्व हुई होगी, अतः उसका विवरण १४ वीं शताब्दी में देना उचित लगा। इसमें संयमित जीवन का माहात्म्य एवं तत्सम्बन्धी उपदेश दिया गया है । इसमें पाँच पापों--हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह की घोर निन्दा की गई है और लोगों को इनसे बचने का सन्देश दिया गया है।
मेरुतुङ्ग - आप नागेन्द्रगच्छीय चन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १३६१ में बर्द्धमानपुर ( वढ़वाणा ) में पाँचसर्गों में विभक्त एक विशाल
१. नाहटा, मुरु-गुर्जर जैन कवि पृ० २६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org