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तेरे त्रिसठइ रासु कोरंटावडि निम्मिउ, जिणहरि दित सुमंत माणवंछिय पुरवउ ।"
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसमें कई सूचनायें हैं । प्रथम यह कि प्रज्ञासूरि को कमल सूरि ने अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया था । दूसरे यह कि यह रास सं० १३६४ में लिखा गया और तीसरे यह कि यह रास कोरंटा में रचा गया था। इसकी भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न मरुगुर्जर है । यह छोटा रास है । इसमें कच्छुली गाँव का बड़ा मनोरम वर्णन किया गया है । कवि कहता है कि इस नगरी में हिमगिरि के समान धवल पार्श्व जिन का मन्दिर है । यहाँ के श्रावक माणिक प्रभसूरि की भक्ति करते हैं । उनके पट्टधर उदयसिंह सूरि हुए जिन्होंने 'पिंड विशुद्धि विवरण' नामक ग्रन्थ लिखा । उनके पट्ट पर कमलसूरि और कमलसूरि ने अपने पट्ट पर प्रज्ञासूरि को प्रतिष्ठित किया । इन्हीं प्रज्ञासूरि के शिष्य प्रज्ञातिलक ने यह रास कोरटावाड में लिखा था । अतः जब तक कोई पुष्ट प्रमाण यह सिद्ध करने के लिए न मिले कि यह रचना प्रज्ञातिलक की नहीं है इसे प्रज्ञातिलक की रचना मानना ही युक्ति संगत प्रतीत होता है ।
फेरु ( ठक्कुर ) - आप कन्नाणा ( राजस्थान) निवासी थे और खरतरगच्छीय जिनचन्द्र सूरि के भक्त श्रावक थे । आपके पिता श्री चन्द्र ठक्कुर घांघिया गोत्रीय श्रेष्ठि थे । आप अलाउद्दीन खिलजी के राज्याधिकारी थे, और प्रायः दिल्ली में रहते थे । आपने अपने अनुभव के आधार पर द्रव्य परीक्षा, वास्तुसार और गणितसार आदि रचनायें प्राकृत में लिखीं । आपकी सात रचनाओं का सम्पादन मुनिजिनविजय ने 'रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रन्थ संग्रह ' नाम से किया है । आपकी अधिकतर रचनायें प्राकृत और अपभ्रंश में रची गई हैं । मरुगुर्जर में इनकी प्रथम प्राप्त रचना सं० १३४७ में लिखित 'श्री युग प्रधान चतुष्पदिका' है। इसके अलावा सं० १३७६ में लिखित 'गुरावली' की भाषा का मूलाधार मरुगुर्जर है किन्तु अपभ्रंश का प्रभाव उस पर अपेक्षाकृत अधिक है । युग प्रधान चतुष्पदिका (२८ गाथा) की रचना कन्नाण में हुई है । यह रचना राजस्थान भारती वर्ष ६ अंक ४ में प्रकाशित है । इसके प्रारम्भ की पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
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'सयल सुरासुर वंदिय पाय, वीरनाह पणमवि जग ताय । सुमरे विणु सिरि सरसइ देवि, जुगवर चरिउ भणिसु संखेवि ।'
१. प्रा० गु० का० सं० पृ० ६२
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