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मरु-गुर्जर जैन साहित्य है।'' इससे लगता है कि उनके समय इसे किसी ने भी लिखा होगा किन्तु प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में इसे प्रज्ञातिलक कृत कहा गया है और श्री मो० द० देसाई ने भी जै० गु० क० भाग १ में प्रज्ञातिलक की रचना बताया था किन्तु भाग ३ में उन्होंने इसे उनके किसी शिष्य की रचना बताकर लेखक पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है अतः यह सर्वथा निश्चित न होते हए बहमत प्रज्ञातिलक के साथ है और यहाँ इस रास को उनकी कृति के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । ___ अग्निकुड से उत्पन्न परमार वंशीय राजपूतों के शासन काल में आबूगिरि की तलहटी में कच्छलीपूरी नामक एक नगरी थी जहाँ धर्मशील लोग निवास करते थे। इसी कच्छुली ग्राम में विधिमार्गीय श्री प्रभरि (धर्मविधि प्रकरण के कर्ता) के शिष्य माणिकप्रभ ने पार्श्व जिनमंदिर की स्थापना कराई थी। इस रास में उसी कच्छलीपूरी का वर्णन होने के कारण इसका नाम कच्छुली रास पड़ गया है। इसके प्रारम्भ में पार्श्व जिन की वन्दना की गई है :
'गणवइ जो जिम दुरीउ विहडंण, रोल निवारण तिहुयण मंडण, पणभवि सामीउ पास जिण । अनल कुंड संमति परमार राज करइ तहिं छे सविचार, आबू गिरिवरु तहिं पवरो।'
इसमें माणिकप्रभसूरि और उदयसिंह सूरि का उल्लेख किया गया है । 'माणिक पहु सूरिनामू श्रीय सूरि प्रतीछीउ, कछुलीपुरि पास जिण भूयणि अहिणिउ, या 'उदयसिंह सूरि कीउ नाम नाचंति ए नारिगण गच्छमरु सयल समपीजए।' अन्त में रचनाकाल और कुछ अन्य विवरण इसमें दिया गया है :'कमल सूरि निअ पाटि सई हाथि प्रज्ञासूरि ठवीओ, षमीउ षमावीउ जीव अणसणि आवा सूधु कीओ।
x जिण सासणि नहचंदु सुहगुरु भवीयहं कलपतरो
ता जगे जयवंत ऊम्हाउ जा जगि ऊगउ सहसकरो। १. श्री अ० च० नाहटा परम्परा प० १७४ २. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह पृ० ५९
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