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__ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पराया दोष देखने वाले मूर्ख को सम्बोधित कर कवि कहता है
'अणहंता पयडेसि तह दोस पराया मढ़,
निय दोसण पव्वय सरिस ते सवि कारिस गूढ़ ।' __इस प्रकार की सरल बोलचाल की भाषा में सामान्य लोगों की तरह उपदेश दिया गया है।
मातृका एक विशेष प्रकार का काव्य रूप है जो बारह खड़ी पर आधारित है इसमें वर्णक्रम से दोहों को रखा जाता है। इसमें भी 'अ' से चलकर 'क्ष' पर रचना समाप्त होती है। यह भी कक्क की ही शैली की रचना होती है इसीलिए शायद कक्क का नाम धर्ममातृका भी है। इन दोनों में धर्माचरण का उपदेश है किन्तु अत्यन्त सरल एवं ग्राह्य है।
पद्मरत्न-आपकी रचना 'श्री जिनप्रबोध सूरि वर्णन' में १० गाथायें हैं । इसके आदि पद्य में जिनप्रबोध सूरि की मां सिरिया देवी और उनकी जन्मभूमि का वन्दन किया गया है यथा :
'पुहवि पहाणइ थाराउद्रि धण कणय समिद्ध ए। जायउ जो जगिसारु श्रीचन्द कुलि गयणि भाणु सिरिया देवि
-कुक्खि उप्पन्नउ गुणह भंडारु (१) इसका अन्तिम पद्य इस प्रकार है
'एसउ गुरु जिण प्रबोध सूरि जो पणमए, अविचल भाविहिं जो सुमरेइ । 'पउमरयण' मुनि इम भणइ सोमण
वंछि उ फलो दुलहो तुरि उलहेइ ।'1 इनकी भाषा में काव्योचित लय-प्रवाह की कमी है किन्तु भाषा स्वाभाविक मरुगुर्जर है।
प्रज्ञातिलक -सं० १३६३ में रचित 'कच्छुलीरास' प्रसिद्ध ऐतिहासिक रचना है । इसके लेखक प्रज्ञातिलक कहे जाते हैं किन्तु यह सर्वथा निर्विवाद नहीं है। यह रचना कोरंटा (जोधपुर) में हुई। श्री अ० च० नाहटा ने राजस्थानी साहित्य के आदिकाल में लिखा है कि सं० १३६८ में प्रज्ञातिलक के समय में रचित कच्छुलीरास प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में प्रकाशित १. श्री अ० च० नाहटा मरु-गुर्जर जैन कवि पृ० २५-२६
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