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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
घरि घरि ए मंगलवार, पुन्न कलस घर घरि ठविय । घरि घरि ए वंदरवाल, घरि घरि गूडी अभविय ।'
धर्मसूरि - आपकी कृति 'समेतशिखर तीर्थं नमस्कार' १४वीं शताब्दी की रचना मानी जाती है किन्तु इनके सम्बन्ध में अन्तिमरूप से कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है। एक 'धर्म' नामक कवि ने सं० १२६६ में 'जंबूस्वामिरास' लिखा, जो महेन्द्रसूरि के शिष्य थे और जिनका विवरण १३वीं शताब्दी में दिया जा चुका है। श्री अ० च० नाहटा ने एक अन्य धर्मसूरि का उल्लेख किया है जिनका शाकम्भरी के चौहान नरेश ने सम्मान किया था । उनके शिष्य आनंदसूरि तथा आनंदसूरि के शिष्य अमरप्रभसूरि थे जिन्होंने 'निबद्धतीर्थमालास्तवन ( सं० १३२३ ) लिखा है । प्रस्तुत रचना 'समेत - शिखरतीर्थं नमस्कार' के लेखक यही धर्मसूरि हो सकते हैं। इसका एक उदाहरण देखिये :
'इय सम्मेत गिरिंद वीस जे सिद्ध जिणेसर, मोह गुरु तम तिमिर पसर भयहरण दिणेसर । ते संधु अंतिय भत्तिराइ, सुपसाइ महामुणि । 'धम्मसूरि' पायाणदितु, चितिय सुह जे मुणि । इसमें कुल आठ गाथायें हैं, इसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है 'असुर अमर खरिद, पणमिय पय पंकय । जसु सिरि बीस जिणिंद, पत्त सासय पय संपय । वर अच्छर सुरसरिय सरिसु, तरुवर सुमणोहर । सो समय गिरिंद नमउ, तित्थह सिर सेरह ।'
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कवि के सम्बन्ध में अधिक सूचनायें नहीं हैं, किन्तु यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि इसकी भाषा मरुगुर्जर है । भाषा के आधार पर ये आदिकालीन कवि ही प्रतीत होते हैं । सम्मेतशिखर, शत्रुञ्जय आदि तीर्थों पर कई अज्ञात कवियों की छोटी-छोटी कृतियाँ उपलब्ध हैं, वे सब इसी समय की हैं ।
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(मंत्री) धारिसिंह - आपकी रचना एक विशेष काव्यरूप को लेकर पाठकों के सम्मुख आती है । रचना का नाम है 'श्रीनेमिनाथधुल' | 'धुल' नामक काव्य विधा का नमूना कम मिलता है । यह रचना भी १४वीं शताब्दी की ही है । इसमें नेमिनाम की स्तुति की गई है । इसकी भाषा
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श्री अ० च० नाहटा 'परम्परा' १६९ और जैन गु० क० पृ० ५०
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