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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पड़ा । महोत्सव का भार तेजपाल - रुद्रपाल ने सँभाला था। रास में वर्णन
है
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'अणहिलि एपुर मंझारि, नरनारी जोवण मिलिय । कियउ सु तेजउ साहु जसु एवड़उ उच्छव लिय । 2
उस अवसर पर ७०० साधुओं और २४०० साध्वियों को वस्त्र भेंट किया था। आपकी रचना 'चैत्यवंदनकुलक' प्रकाशित हो चुकी है।
प्रस्तुत पट्टाभिषेकरास का समय रचना में इस प्रकार दिया गया है, तेरह सय सत्तहत्तरइ किन्नंग इगारसि जिट्ट |
सुर विमाणु किरि मंडियउ नंदि भुवणि जिणिदिट्ठ ।
इसकी भाषा पर अपभ्रंश का कुछ अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है । इसके प्रारम्भ की चतुष्पदी उदाहरण के रूप में आगे उद्धृत है :'सयल - कुशल-कल्लाण-वल्ली, धरण संति जिणेसरु । पण मेविण जिणचंद सूरि गोयम समु गणहरु ।
कवि सुल्तान कुतुबुद्दीन की अनुकंपा का वर्णन करता हुआ आगे लिखता है -
कुतुबुद्दीन सुरताण राउ, रंजिउ स मणोहरु | afras जिणचन्दसूरि सूरिहिं सिरसेहरु | ६ |
पाटोत्सव के निमंत्रण सभी संघों को कुंकुमी पत्रों द्वारा भेजे गये थे'त संध बर्याणि आनंदियउ, जाल्हण तणउ मल्हार ।
देस दिसतंर पाठवए कंकुडली सुविचार ।'
इस कृति के दूसरे घात के २४ वें छन्द के पश्चात् के छंद दो पदों के हैं और इससे पूर्व के छन्द चतुष्पदी हैं । इसकी अन्तिम ( ३८वीं) द्विपदी निम्नाङ्कित है :
'गुणि गोयम गुरु येसु पढ़हिं सुनहिं जे संथणहि । अमराउर तहं वासु धम्मिय धम्मकलसु भणइ । ३८
पाटोत्सव का वर्णन सरल भाषा में किया गया है । पाटोत्सव के कारण घर-घर में मंगलकारी वातावरण छा गया । इस सम्बन्ध में एक उद्धरण नीचे दिया जा रहा है :
१. ऐ० जै० काव्य संग्रह पृ० १९
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