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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१७९ श्रीदेवचन्द्रसूरि -आपने १४वीं शताब्दी में 'रावण पार्श्वनाथ विनती' नामक एक रचना ९ गाथाओं में लिखी है। इसके प्रारम्भ की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
'रावण मंडण पासजिन पणमउ तूह पय सामि ।
महुयर केतिककुसुम जिम, मण लीणउं तुह नामि ।१। इसकी अन्तिम गाथा भी भाषा के नमूने के रूप में उद्धृत है :
'कलि कप्पदुम पास जिण पयडउ तुह पय सेव, देवचन्द सूरिप्पमुह, पाव पंक गय लेव । च रावणमंडण भवमय खंढडण, पास जिणेसर पय कमल ।
जे तुझ नमसिइ भत्तिई पसंसइ, ते नर पावई सुह अमल ।९।' कवि के सम्बन्ध में अन्य विवरण ज्ञात नहीं हो सके हैं। इस प्रकार की कई छोटी रचनायें प्राप्त हैं जिनके लेखक का नाम नहीं ज्ञात है, उनका विवरण अध्याय के अन्त में दिया गया है ।
धर्मकलश-खरतरगच्छ के आचार्य जिनप्रबोध सूरि के आप प्रशिष्य एवं जिनचन्द्र सूरि के शिष्य थे। आपकी एक रचना 'जिनकुशलसूरिपट्टाभिषेकरास' सं० १३७७ की लिखी हुई 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित है। इस रास में गुरु परम्परा का गुरुओं की विशेषताओं के साथ उल्लेख किया गया है जैसे खरतर उपाधि धारक जिनेश्वरसूरि को 'दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों को परास्त कर 'वसति मार्ग प्रकाशक' और उनके पट्टधर जिनचन्द्र को संवेगरंगशाला का कर्ता, अभयदेवसूरि को 'नवाङ्गीवत्तिकर्ता' आदि कहा गया है। उनके बाद क्रम से जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि जिनप्रबोधसूरि
और जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर जिनकुशल सूरि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया है । यह रास जिनकुशल सूरि के पदस्थापना महोत्सव के अवसर पर लिखा गया है। यह स्थापना महोत्सव सं० १३७५ में हुआ था। अतः इसका रचनाकाल सं० १३७५ माना जा सकता है। ___मंत्री देवराज के पुत्र जेल्हे की भार्या जयश्री की कुक्षि से आप का जन्म हुआ था। आपका दीक्षानाम कुशलकीर्ति था। सं० १३७७ में ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी को पाटण में बड़े महोत्सव के साथ इन्हें जिनचन्द्रसूरि के पट्टपर राजेन्द्रसूरि ने प्रतिष्ठित किया था। उसी समय आपका नाम जिनकुशलसूरि १. श्री अ० च० नाहटा-म० गु० जैन कवि पृ० ५६
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