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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दूसरा गीत भी ६ छंदों का ही है। इसमें भी बादशाह के रंजन की बात कही गई है । इसकी कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
'आसपति कुतुबुद्दीन मनि रंजिउ दीढेलि जिनप्रभसूरिए । एकतिहि मन सासउ पूछइ, राय मणोरह पूरीए । ढाल दमामा अरु नीसाण गहिण बाजइ तूराए।
इणपरि जिणप्रभसूरि गुरु आवइ संघ मणोरह पूराए । इस प्रकार उनका दिल्ली दरबार और जनता में अपूर्व प्रभाव व्यक्त किया गया है। यह रचना शायद उनके जीवनकाल की है। यह प्रथम गीत से प्राचीन होगी पर इसकी भाषा प्रथम गीत की भाषा से अधिक स्वच्छ मरुगुर्जर है।
तीसरी रचना "जिनप्रभसूरीणां गीतम्' १० छंदों की है। बादशाह ने सूरिजी के प्रभाव से प्रसन्न होकर जो सम्मान किया और फरमान निकाला था उसका भी इसमें वर्णन किया गया है यथा :
'पूजिवि सुगुरु वस्त्रादिकहि करिवि सहिथि निसाणु ।
देइ फुरमाणु अनु कारवाइ नव वसति राय सुजाणु।' यह रचना सम्भवतः मुहम्मदशाह की नवीन 'वसति' के प्रवेश के अवसर पर लिखी गई होगी। कवि कहता है :
'वाजहि पंच सबुद गहिर सरि, नाचहि तदण नारि ।
इन्दु जम गइंद सहितु गुरु आवइ वसतिहि मझारि ।' इसका अन्तिम पद्य इस प्रकार है :'सानिधि पउमिणि देवि इम जगि जुग जयवन्तो।
नंदउ जिणप्रभ सूरि गुरु संजमसिरि तणउकतो।'
ये रचनायें जिनप्रभसूरि के भक्तों और शिष्यों द्वारा उनकी प्रशंसा में लिखी गई हैं, अतः विषय वस्तु की पुनरावृत्ति स्वाभाविक है। इनमें अधिक काव्यत्व की भी सम्भावना नहीं है किन्तु मरुगुर्जर की सरल, बोलचाल की भाषा की जानकारी के लिए इनका बहुत महत्व है, अतः इनके विवरण-उद्धरण भी आ० जिनप्रभसूरि के विवरण के साथ देना आवश्यक समझा गया। १. ऐ० जैन काव्य संग्रह
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