________________
१२
मेरु-गुर्जर जैन साहित्य
इसका अन्तिम ३७वां पद्य निम्नांकित है। 'पउमावइ चउपई पढंत, होई पुरिस तिहुयण सिरिकंत । रम्भ भइ निय जस कपूर, सूरदीय भवण जिणप्पह सूरि |३७| # आपका जन्म मोहिलवाड़ी (झुंझुनू के पास ) सं० १३२६ में हुआ था । आपके पिता श्रीमाल वंश के ताम्ब गोत्रीय श्र ेष्ठि श्री रत्नपाल थे और आपकी माता का नाम खेतल देवी था । आपको सं० १३४१ में जिनसिंह सूरि ने आचार्य पद प्रदान किया । आपका विहार क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब से लेकर दक्षिण में कर्नाटक और तैलंग देश तक व्यापक था किन्तु आपका विशेष कार्यक्षेत्र दिल्ली और देवगिरि रहा । आपका अनुभव विशद, विद्वत्ता चमत्कारपूर्ण और भाषाज्ञान विस्तृत था । आपने अपभ्रंश में वयरस्वामिचरित्र, मल्लिचरित्र आदि ग्रन्थ लिखे हैं । नाहटा जी का विचार है कि आपने संस्कृत, प्राकृत, अपब्रश और मरुगुर्जर के अतिरिक्त फारसी में भी कुछ स्तवन आदि लिखे थे । आपके ७५ से भी अधिक स्तोत्र आज उपलब्ध हैं । आपका कार्य समय सं० १३२५ से स० १३९३ तक है अतः सं० १३९३ के कुछ बाद ही आप स्वर्गस्थ हुए होंगे ।
I
आपके व्यक्तित्व और चरित्र पर आधारित कुछ रचनायें प्राप्त हैं जिनमें से तीन गीत 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित हैं । इनका नाम है 'श्रीजिनप्रभसूरिगीतम्' । इनमें से प्रथम गीत में मात्र ६ द्विपदियां हैं । इसमें जिनसिंहसूरिप्रवर्तित लघुखरतरगच्छ और आचार्य जिनप्रभसूरि का दिल्ली के सम्राट को प्रभावित करने की चर्चा है । इस रचना में आपके चमत्कारों का भी वर्णन है । इसमें रचनाकार का नाम और रचना समय आदि नहीं दिया गया है किन्तु इसमें 'खरतरि गच्छ वर्द्धमानसूरि, जिणेसर सूरि गुरो, अभयदेवसूरि, जिणवल्लहसूरि जिणदत्त जुगपवरो, से लेकर जिनदेवसूरि और जिनमेरुसूरि तक का नामोल्लेख होने के कारण यह रचना १४वीं के अन्त या १५वीं शती के प्रारम्भ की हो सकती है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
' गीत पवीतु जो गायसु सुगुरु परंपरह, सयल समीहि सिझाहिं पुहविहिं तसु नरह | "
१. श्री अ० च० नाहटा - 'परम्परा' पृ० १७६ २. ऐ० जैन काव्य संग्रह ( सातवाँ गीत )
१७७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org