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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य १७५ वश्यक प्रभाव नहीं प्रतीत होता। इसकी भाषा प्रसाद गुण के साथ माधुर्य गुण से भी सम्पन्न है । श्रु तिमाधुर्य के लिए अनुरणात्मक शब्दों का अपेक्षित प्रयोग किया गया है। आपका अधिकांश जीवन काल गुजरात में व्यतीत होने के कारण आपकी भाषा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उदाहरणार्थ 'श्रीशत्रुञ्जयचतुर्विंशतिस्तवन' की अन्तिम पंक्तियाँ देखिये : 'तियलोय भूसणु दलिय दुसणु बिबुह तोसण संगउ । इय माय ताप सरीर लच्छणा, देह कतिहि सत्थउ । सिरिमाण तुग विहार संठिउ, सुध इट्टिउ जिणगणो जिण पउम सूरि सूरिंद वंदिउ, दिसउ सुक्खु गुणुल्लुणो।२६।'' इसमें प्रायः दोहा और रोला छंदों का प्रयोग अधिक पाया जाता है। मरुगुर्जर की आदिकालीन रचनाओं में साहित्यिक सौन्दर्य, चरित्र चित्रण और भाषा सौष्ठव की दृष्टि से जिनपद्मसूरि की प्रथम रचना 'थूलिभद्द फागु' का महत्व असंदिग्ध है और आलोचकों के वीच वह बहुचर्चित रचना है। इनकी दूसरी रचना की प्रारम्भिक पंक्तियां खंडित हैं फिर भी उसका यहाँ प्रथम छन्द उद्धत करके यह विवरण समाप्त किया जाता है : 'जग मंडण गुण पवरं, सत्तुजय धरणि रं। सहु सारं भवतार, भयवार थुणिसु जिणवरि ।१।' जिनप्रभसूरि-आप श्वेतांबर सम्प्रदाय के लघु खरतरगच्छ शाखा के आचार्य श्री जिनसिंहसूरि के शिष्य थे। आप खरतरगच्छ के महान् शासनप्रभावक आचार्य हो गये हैं। आप सं० १३८५ में मुहम्मद तुगलक से मिले थे और वह आपके व्यक्तित्व से बड़ा प्रभावित हआ था। आपके गरु जिनसिंह सूरि ने लघु खरतरगच्छ का प्रवर्तन किया था । आ० जिनप्रभसूरि असाधारण प्रतिभावान और संस्कृत तथा प्राकृत में निष्णात विद्वान् तथा १. श्री अ० च० नाहटा-जै० म० गुरु क० पृ० ४७ २. वही ३, 'ढिल्लयां साहि गहम्मदं शककुलक्ष्मापाल चूडामणि, येन ज्ञान कला कलाप मुदितं निर्माय षटदर्शनी', प्राकाश्यं गमिता निजेन यशसा साकं न सर्वागम, ग्रन्थज्ञो जयतान् जिनप्रभ गुरुविद्यागुरुनः सदा श्री मो० द० दे० (जैन सा० नो इ०) पृ० ४१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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