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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
झ ब झ त्र झ ब झब ए वीजुलइ झबक्कइ, थरहर थरहर ए विरहिण मणु कंपइ ।' महुर गंभीर सरेण मेह जिमजिम गाजते, पंचवाण निय कुसुम वाण तिमि तिमि साजंते । जिम जिम केतिक महमहंत परिमल विहसावइ, तिमतिम कामिय चरण लग्गि निय रमणि मनावइ ।'
वर्षा की बूँदों की मधुर ध्वनि के लिए ध्वन्यात्मक शब्दों का यह प्रयोग म गुर्जर साहित्य में अति चर्चित है । कहाँ तो वर्षा की बूंदें कामवाण के समान विलासियों को व्याकुल कर रही हैं, वे अपनी रूठी कामिनियों के पैर पकड़ कर उन्हें मना रहे हैं और कहाँ स्वयम् कोशा स्थूलिभद्र को नाना प्रकार से रिझाने का प्रयत्न कर करके हार जा रही है, धन्य है वह संयम साधना | उन्हें तो चिन्तामणि मिल गई थी । उसे छोड़कर भला वे विषय भोग का पत्थर क्यों लेने जाते । कवि कहता है'चितामणि परिहरवि कवणु पत्थर गिइ | तिम संजय सिरि परिन एवि बहुधम्म समुज्जल, आलिंगइ तुह कोस कवतु पर संत महाबल । ' इसके आदि और अन्त का छन्द प्रस्तुत किया जा रहा है 'पणमिय पास जिणंद पय अनुसरसइ समरेवी, थूलभद्द मुणिव भणिसु फागु बंधि गुण केवी |१| 'नंदउ सो सिरि थूलभद्द जो जगह पहाणो, मिलियउ जिणि जगि मल्ल सल्लरइ वल्लहमाणो । खरतरगच्छ जिनपद्मसूरि किय फागु रमेवड, खेला नाचंइ चैत्रमासि रंगिहि गावेवड । '
'
आदि
अन्त
इन पंक्तियों से प्रकट है कि इस प्रकार के फागु फाल्गुन- चैत्र (वसंत) मास में खेलने और नाचने के अभिप्राय से लिखे जाते थे । फागु परम्परा में सम्भवतः मरुगुर्जर भाषा में लिखित यह दूसरा फागु है । इससे पूर्व सं० १३४१ में रचित 'जिनचन्दसूरिफागु' सम्भवतः प्रथम फागु है । इतना प्राचीन होते हुए भी इसकी भाषा पर प्राचीनता एवं अपभ्रंश का अना
१. 'प्राचीन फागु संग्रह' प्रथम रचना, और श्री दे० - जै० गु० क० भाग १ पृ. ११ २. देखिए - ना० प्र० पत्रिका वर्ष ५९ अंक १ श्री अक्षयचन्द्र शर्मा का लेख 'सिरि थलभट्ट फागु पर्यावलोचन'
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