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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१७३ यह छह भासों में विभाजित है। फागु का प्रचलन उत्तरकालीन अपभ्रंश काल में प्रारम्भ हो गया था। यह फाल्गुन में वसन्तोत्सव पर गाया जाने वाला लोकगीत है । जैनाचार्यों ने फागुओं में धार्मिकता का पुट देकर शृगार की पृष्ठभूमि पर शान्तरस का चित्र खींचा है। प्रस्तुत फागु में स्थलिभद्र की सुपरिचित कथा का आधार लिया गया है। कथा विस्तार के लिए कथा साहित्य प्रकरण में 'स्थलभद्रकथा' देखी जा सकती है। स्थूलभद्र जैन परम्परा में बड़े प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। वे नन्द के मंत्री शकडाल के पुत्र थे और पाटलिपुत्र की परम रूपवती वेश्या कोशा पर अनुरक्त थे। पिता की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने मंत्री पद लेने के बजाय संभूति विजय के पास जाकर दीक्षा ले ली। संयम साधना के बाद चातुर्मास में वे एक बार पुनः कोशा के घर गये । कोशा ने इन्हें संयम से डिगाने तथा रिझाने का बड़ा प्रयत्न किया किन्तु ये अपने संयम पर अविचल रहे । अन्त में उसे उपदेश देकर श्राविका बनाया एवं स्वयम् विजयश्री के साथ वापस गुरु के पास लौट आये । यह रचना इसी कथावस्तु पर आधारित है। ___ कवि ने कोशा के अंग-प्रत्यंग की सुषमा का बड़ा आकर्षक चित्र प्रस्तुता किया है। नारी के रूप का कामोद्दीपक वर्णन करता हुआ कवि लिखता है :
'मयण खग्ग जिम लहलहंत जसु वेणी दंडो। सरलउ तरलउ सामलउ रोमावलि दंडो। तुंग पयोहर उल्लसइ सिंगार थवक्का।
कुसुम वाणि निय अमिथ कुंभ किर थायणि मुक्का ।१२।। कोशा के नखशिख का श्रृंगारमय वर्णन करता हुआ आगे कवि कहता है :
'अहर बिंब परवालखंड वर चम्पावन्नी,
नयन सलूणीय हावभाव बहु गुण सम्पन्नी।' वर्षा ऋतु का उद्दीपन विभाव के रूप में निम्नलिखित चित्र भी मनोहर है, यथा :--
'झिरिमिरि झिरिमिरि झिरिमिरि ए मेहा वरसंति,
खलहल खलहल खलहल ए वाहला वहति । १. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह क्रम सं० ५, एवम्
श्री अ० च० नाहटा 'परम्परा' प० १७६
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