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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१७१ कुशलसूरिरेलुआ' लिखा। इसकी चर्चा चारित्रगणिकृत 'जिनचन्द्रसूरि रेलुआ' के साथ की गई है। प्रस्तुत रेलुआ कुल १० गाथाओं की रचना है। आ० जिनकुशल सरि का आचार्यकाल सं० १३७७ से ८९ के बीच था अतः यह रचना इसी के आसपास की होगी। इसका आदि और अन्त उद्ध त किया जा रहा है। आदि 'धनु धनु जेल्हउ मंतिवर धनु जयतल देविय इत्थिय गुण संपुन्न ।
जीह तणइ कुलि अवयरिउ परवाइय भंजणो सिरि जिणकुशल मुणिंद ।' इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है :'सिरि जिनचन्दह सीसुवर सील समूसिउ वंदिह जे सविचार । ते नर नरसुर सिद्धि सुह तव चरण, संसाहिय पावहि नाणु अप्पारु।'
इसी प्रति के साथ सालिभद्र रेलआ (गाथा ९) के अतिरिक्त श्री थूलिभद्र वर्णना बोली (गाथा ८), धर्म चर्चरी गाथा २० और कृपण नारी संवाद गाथा ९ आदि कई छोटी-छोटी किन्तु काव्य रूप की दृष्टि से अपूर्व रचनायें प्राप्त हुई थी जिनमें से कृपणनारी संवाद तो बहुत ही प्रसिद्ध हो गई है। धर्मचर्चरी संभवतः जिनदत्तसूरिकृत प्रसिद्ध चर्चरी के बाद दूसरी चर्चरी प्राप्त है । इसका आदि और अन्त यहाँ दिया जा रहा है :आदि 'सुमरे विणु सिरि वीर जिणु, पभणिसु सावय-धम्मु ।
जो आराहइ इक्कमणि, सो नरु पावइ सम्मु।' अन्त 'जे आराहइ गुरु चलण, जिणवर धम्मु करिति ।
संसारिय सुहु अणुभविय, सिवपुरि ते विलसंति ।' २० ।' कृपण नारी और अन्य अज्ञात कवियों की कृतियों का विवरण इस अध्याय के अन्त में एकत्र ही दिया जायेगा।
(दादा) जिनकुशल सूरि-आप इस शताब्दी के अति प्रभावशाली जैनाचार्य थे। आप जिनचन्द्रसरि के शिष्य थे। आपका जन्म सं० १३३७ में मरुदेश के गढ़सिवाना ग्रामवासी छाजहड गोत्रीय जेसल की भार्या जयश्री की कुक्षि से हुआ था। आपका जन्मनाम करमण था। सं० १३४७ में आपने जिनचन्द्र सरि से दीक्षा ली और कुशल-कीर्ति नाम पड़ा । सं० १३७६ में जिनचन्द्रसूरि के स्वर्गवासी होने पर आप जिनकुशलसूरि के नाम से आचार्य पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए। आपने दूर दूर तक १. श्री अ० च० नाहटा-म० गु० जे० कवि पृ० ३२ २. श्री अ० च० नाहटा-म० गु० जे० कवि पृ. ३५
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