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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनकी रचना 'पहाड़ियाराग' सम्भवतः कोई लोकगीत हो, उसकी भाषा भी लोकभाषा रही होगी, यदि उस रचना के नमूने प्राप्त हों तो तत्कालीन भाषा की दोनों शैलियों का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन संभव हो सकता है किन्तु अभी तक वह रचना या उसके उद्धरण मुझे नहीं प्राप्त हो सके। प्राभातिक नामावलि का विषय तो उसके नाम से ही स्पष्ट है । उसमें प्रभातकाल में स्मरणीय नामों का माहात्म्य कहा गया होगा।
जयदेव मुनि- आपकी रचना 'भावना संधि प्रकरण' कुल छह कड़वकों की एक लघु रचना है । इसके प्रत्येक कड़वक में १० पद्य हैं । इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में १३वीं-१४वीं शताब्दी के बीच का समय प्रायः लेखकों ने अनुमानित किया है। इस रचना के रचयिता के काल और स्थान आदि की सूचना नहीं प्राप्त होती है। इस संधि के अन्तिम पद्य में इसके रचयिता जयदेव मुनि और उनके शिष्य शिवदेवसूरि का नामोल्लेख मात्र मिलता है । इसमें धार्मिक-नैतिक उपदेश की प्रधानता है किन्तु इसकी भाषा प्रवाह पूर्ण, नादानुकूल, लोकोक्तियों और सुभाषितों से सजी होने के कारण उल्लेखनीय है । इसके भाषा के आधार पर इसके सम्पादक श्री एम० सी० मोदी ने इसका रचना काल १३वीं-१४वीं शताब्दी के बीच माना है। इसमें मालवनरेश मुज का उल्लेख है किन्तु यह उसकी समकालीन रचना नहीं है । इसकी भाषा के कारण कुछ लोग इसे पुरानी रचना मानने के पक्ष में भी हैं। इसकी भाषा स्पष्ट ही अपभ्रंश की रूढ़ शैली है; इसका एक उदाहरण द्रष्टव्य है :
'अनुठहि मुत्तउ तडफडंत, जैतेहि निपीडत कउपंडत ।
रहि जुत्त उ तट्ठउ तडपडंतु, वज्जावइ पक्कड फडकढंतु।' जैसा पहले कहा गया कि इसका विषय नैतिक उपदेश है। एक स्थान पर संयम का त्याग कर विषयों में डूबे हुए व्यक्ति की तुलना कवि उस मूर्ख से करता है जो कल्पतरु काटकर एरंड का पेड़ लगता है, यथा :
कप्पतरु तोडि एरंड सो वव्वए' जयधर्म-आप खरतरगच्छीय आचार्य जिनकुशलसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १३७७-७९ के बीच किसी समय अपने गुरु की स्तुति में 'जिन1. Annual of Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona
भाग ११, पृ० १-३१ तक सन् १९३० ई० २. हि० सा० का वृ० इ० भाग ३ पृ० ३४६
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