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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
उदयधर्मं विनयचन्द्र के गुरु भ्राता थे । इसीलिए उदयधर्म की रचना अधिक प्रसिद्ध लेखक विनयचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हो गई होगी । रत्नसिंहसूरि और विनयचन्द्र का समय १४वीं शताब्दी प्रायः सभी इतिहासकारों को मान्य है अतः इनका समय दो सौ वर्ष बाद नहीं हो सकता और उदयधर्म भी १४वीं शताव्दी ही कवि होंगे । ऐसा प्रतीत होता है कि 'वाक्य प्रकाश औक्तिक' के लेखक कोई अन्य उदयधर्म हैं जिससे श्री देसाई जी को भ्रम हो गया है । अतः मैं श्री अ० च० नाहटा के मत को उचित समझते हुए उदयधर्म को १४वीं शताब्दी का कवि मानता हूँ ।
१४वीं शताब्दी में छप्पय छन्द का इतना प्रशस्त और प्रवाहमय प्रयोग अवश्य कुछ शंका उत्पन्न करता है किन्तु इनकी भाषा का अपभ्रंश गर्भित स्वरूप इन्हें १६वीं शताब्दी का कवि मानने में बड़ी बाधा उत्पन्न करता है । एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है।
'सव्व साहु तुम्हि सुणउ गणउ जग अघ समाणउ । कोह कहवि परिहरउ धरउ समरस समराणउ । तिहुयण गुरु सिरिवीर धीरपण धम्म धुरंधर । दास पेस दुव्वयण सहइ घण दुसह निरंतर । नर तिरिय देव उवसग्ग बहु जह जग गुरु जिणवर खमइ । तिम खमउ खंति अग्गलि करी जेम्मरि उदल बल नमइ ।'
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इस छप्पय को पढ़कर यह स्पष्ट होता है कि इसमें उत्तम छन्द प्रवाह है किन्तु भाषा अति अपभ्रंश गर्भित है । इसका नाम ही लेखक की अपभ्रंश के प्रति रुझान का संकेत करता है । इसके प्रारम्भ का छप्पय इस प्रकार है : 'विजय नदि जिणिद वीर हत्थिहि वय लेविणु, धम्मदास गणि नामि गामि नयरिहिं विहरइ पण, नियपुत्तह रणसोहराय पडिबोहण सारिहि,
करइ स उवस माल जिण वयण विचारिहिं । सय पंचच्याल गाहा रयण मणि करंड महियलि मुणउ । सह भावि सुद्ध सिद्धत समसवि सुसाहु सावय सुणहुं ।"
इसका अन्तिम छप्पय भी प्रस्तुत है -
'इणिपरि सिरि उवओसमाल कहाणय, तव संजम संतोष विणय विज्जाइ पहाणाय ।
१. मो० द० दे० जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४५७
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