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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य १६३ काब्य की रचना सिद्धसूरि के शिष्य ककसूरि ने कंजरोटपुर में सं० १३९३ में की थी। सं० १३७१ में समराशाह ने अपने कुलदेवी मच्चिका की मूर्ति स्थापित कराई थी। उसकेश गच्छ की गुरु परम्परा में रत्नप्रभ, यक्षदेव, कक्कसूरि, सिद्धसूरि और देवगुप्तसूरि के नाम ही दोहराये जाते रहे। इस रास में उल्लिखित सिद्धमूरि और कक्कमरि द्वितीय होंगे, इसी प्रसंग पर आधारित कुछ पंक्तियाँ भाषा के नमूने के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ : 'उवएस गच्छह मंडणउए गुरु रयणप्पह सूरि त । तसु पयकमल मराल उए कक्कसूरि मुनिराउ त । ध्यान धनुषि जिणि भंजियउए मयणमल्ल भडिवाउत ।' बिम्ब प्रतिष्ठा एव धर्म उत्सवों पर रासनृत्य का आयोजन होता था। नृत्योत्सव का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है : "खेला नाचई नवलपरे घाघरि रवुझमकइ। अचरिउ देषिउ धामियह कह चित्तु न चमकइ ।' ध्वनि एवं गति का बिम्बात्मक वर्णन निम्न पंक्तियों में दर्शनीय है 'वाजिय संख असंख नादि काहल दुडुदुडुआ। घोड चडइ सल्लार सार राउत सीगंडिया। तउ देवालउ जोमि वेगि घाघरि रवु झमकइ । समविसम नवि गणइ कोइ नवि कारिउ थक्कइ । (षष्टी भाषा १पृ० २४५) इसकी भाषा चारणों भी भाषा से पर्याप्त मिलती है। दसमी भासा में वसंत ऋतु का वर्णन देखिये : 'रितु अवतरियउ वहि जि वसंतो, सुरहि कुसुम परिमलपूरंतो। समरह वाजिय विजय ढक्का।। सांगु सेलु सल्लइ सच्छाया, केसूय कुडय कदंब निकाया । संघ सेनु गिरिनाहइ बहए। बातीय पूछइं तरुवर नाम, वाटइ आवई नव नव गाम । नयनी झरण माउलइ।” १. जै० ऐ० गु० काव्य संचय पृ० २३९; 'समरारास' और 'परम्परा' पृ० १७४-१७५ २. जैन ऐ० गु० काव्य संचय 'समरारास' पृ० २४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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