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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१६१ ऋजूकथन शैली में है। भाषा जनप्रचलित, काव्यरूप लोकप्रिय, अप्रस्तुत दैनिक जीवन के सामान्य क्षेत्र से गहीत और रचनाशैली सीधी सरल होती है। अतः इन मुक्तकों में चाहे रसप्लावित करने की उतनी क्षमता न हो किन्तु वे पाठक को प्रभावित अवश्य करते हैं। अपनी बात के समर्थन में एक उदाहरण और प्रस्तुत करके यह विवरण समाप्त किया जायेगा :
'फर सरस गंधवाहिणी रुव विहूणउ सोइ,
जीव शरीरह विणु करि आणंदा' सद्गुरु जाणइ सोइ ।। यह रचना साधु संतों के लिए गोपाल साहु के आग्रह पर लिखी गई ।
अम्बदेवसूरि-आप निवृत्तिगच्छीय पासड के शिष्य थे। आपकी प्रसिद्ध रचना ‘समरारास' सं० १३७१ में लिखी गई। यह रास ऐतिहासिक, भौगोलिक और साहित्यिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सं० १३६९ में अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने शत्रुञ्जय के तीर्थ ऋषभदेव की मूर्ति को नष्ट कर दिया। तत्कालीन क्षत्रियों में खड्गबल से मंदिर के पुननिर्माण का साहस नहीं रह गया था। कवि कहता है, खत्तिय खग्गुनलिति साहसियहु साहसु गलए।' ऐसे विषम समय में समराशाह ने यह कार्य सम्पन्न किया। उसन सूबेदार अलफ खाँ से मिलकर फरमान निकलवाया कि मंदिर का पुर्नानमाण किया जाय और भविष्य में मतियों को नष्ट न किया जाय । उसने नवीन मूर्तियों की स्थापना कराई और सं० १३७३ में संघसहित वहाँ यात्रा भी थी। यह रास उसी महत्त्वपूर्ण घटना पर आधारित है। इस रास में खिलजी कालीन भारतीय स्थिति का सटीक एवं सजीव चित्र उपलब्ध होता है। यह रास 'गुर्जरकाव्यसंग्रह' और जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय (सं० मुनिजिनविजय) में प्रकाशित हो चुका है।
जैन समाज में महामात्य वस्तुपाल के बाद संघपति समरसिंह बड़े कीतिशाली व्यक्ति समझे जाते हैं। इस रास में समराशाह की वश परम्परा का परिचय दिया गया है। उसके आधार पर पता चलता है कि ओसवाल वंशीय वेसट कुल में सलषण नामक एक प्रतापी पूर्व-पुरुष हुए। उनके पुत्र आजड़ के पुत्र गोसल थ। इन्हीं गोसल के पुत्र समराशाह के पिता देसल थ । देसल की भार्या भोली से तीन पुत्र हए। उनके दाम थे सहजो, साहणो और समरो। यह परिवार पाटणपुर से अणहिलपुर आकर जौहरी (झावेरी) का धन्धा करता था। सूबेदार अलफखाँ समरसिंह से बड़ा प्रसन्न था। उसके बड़े भाई सहजो (सहजपाल) ने देवगिरि में बडाभारी कारोबार जमाया था। उन्होंने वहां चौबीस जिनालयों की प्रतिष्ठा करके जैनधर्म का प्रभाव
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