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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह कृति जैनयुग में पं० लालचन्द कृत गुजराती छाया के साथ प्रका. शित हो चुकी है । इसकी भाषा अपभ्रंश मिश्रित मरुगुर्जर है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ आगे उद्धृत की जाती है :
'इह महे दिसो दिस संघ मिलिया घणा, दसण घणा एहि वरिसंतजिव नवघणां । ठाणि ठाणो पणच्चंति तरुणी जणा,
काणि रमणि नेउरा राव रंजिय जंणा। 'ण' कार के अतिरेक को छोड़कर भाषा सरल एवं सरस है। शब्दालंकारों के प्रयोग से भाषा श्रुतिमधुर बन सकी है। इस समय तक हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती भाषा में पर्याप्त अलगाव नहीं हुआ था इसलिए समग्र क्षेत्र की जैन काव्य भाषा मरुगर्जर ही थी। श्री मो० द० देसाई ने इस शताब्दी की भाषा के सम्बन्ध में लिखा है “गुजराती, राजस्थानी हिन्दी भाषानं साम्य आसमय सुधी घणंजुहंतु ते आमाथी परखाय छ।' इस प्रकार अभयतिलक गणि की भाषा मरुगुर्जर का प्रारम्भिक रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। आप सस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं के भी अच्छे ज्ञाता थे। आपने सं० १३१२ में आ० हेमचन्द्रसूरि कृत संस्कृत द्वयाश्रय ग्रन्थ पर एक विद्वत्तापूर्ण वृत्ति पालणपुर में लिखी है। ___अमरप्रभसूरि-आप आणंदमूरि के शिष्य थे। आपने सं० १३२३ में 'निबद्ध तीर्थमाल स्तवन' नामक ३६ पद्यों की रचना की है। आणंदसूरि के गरु आ० धर्मसूरि बड़े प्रभावशाली जैनाचार्य थे । शाकम्भरी के चौहान राजाओं द्वारा उन्हें पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। यह स्तवन द्वादश भासा या ढाल में निबद्ध है। इसके प्रथम तीन भासों में शाश्वत जिनालयों का वर्णन है। चौथी से सातवीं ढाल में अनेक जैन तीर्थस्थानों का उल्लेख किया गया है। दसवीं ढाल में कवि ने अपनी गुरु परम्परा और रचनाकाल का उल्लेख किया है । उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :--
"सायंभरि नरराय, पणय पाय धम्म सूरि गुरो, तसुपटि उदयगिरिंद आणंदसूरि गुरु दिवसयरो। अमरप्रभ सूरि नामुतासुसीसि संथव रमउ,
तेरह तेवीसमि (सं० १३२३) सिरि चंदुज्ज्वल जसु दियओ।" १. श्री मो० द० देसाई, जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४३५ २. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा प ० १६९-१७०
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