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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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भी देशी भाषाओं पर अपभ्रंश का काफी प्रभाव था और काव्यभाषा में अपभ्र ंश की छौंक लगाकर पुरानापन बनाये रखने का प्रयास होता रहा किंतु भाषा का मूल स्वरूप बदलने लगा था । तत्सम शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति जो ११ - १२वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई थी १४वीं शताब्दी में आकर अधिक सक्रिय हो गई । आ० ह० प्र० द्विवेदी ने उक्तिव्यक्तिप्रकरण और कुवलयमाला आदि से कई उदाहरण देकर अपना कथन प्रमाणित किया है । छात्र, क्षेत्र, विद्या, प्रज्ञा जैसे तत्सम शब्दों की भाषा में बहुलता इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप दिखाई देती है । गद्य में यह प्रवृत्ति अधिक स्पष्ट दिखाई पड़ती है । "
सांस्कृतिक धार्मिक क्षेत्र में भक्ति आन्दोलन इस शताब्दी की महत्त्वपूर्ण घटना है । इसका प्रभाव दक्षिण और उत्तर भारत की तमाम भाषाओं पर क्रमशः पड़ा। जैनभक्ति काव्य इसी समय से प्रारंभ होकर १८वीं शताब्दी तक मरुगुर्जर में लिखे गये । ' इस काल में अनेक जैनभक्ति ग्रन्थ पुरानी हिन्दी में लिखे गये जैसे लक्ष्मीतिलक कृत शान्तिनाथरास, अभयतिलक कृत महावीररास इत्यादि । इस सामान्य पृष्ठ भूमि पर रचित १४वीं शताब्दी के गुर्जर साहित्य का परिचय आगे प्रस्तुत किया जा रहा है ।
अभयतिलक गणि - आप खरतर गच्छीय विद्वान् साधु थे । आपने वि० सं० १३०७ में 'महावीर रास' नामक २१ पद्यों की एक रचना की । यह कृति भीमपल्ली ( भीलडिया) के महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा के समय लिखी गई थी । प्रतिष्ठा महोत्सव का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है कि मंडलिक राजा के आदेश से श्रावक भुवनपाल ने जिनालय को स्वर्णमय दंडकलश से विभूषित कर प्रतिष्ठा करवाई :
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'तसु उवरि भवणु उत्तंगवर तोरणं, मंडलिय रास आएसि अइसोहणं । साहुणा भुवण पालेण करावियं, जगधरह साहुकुलि कलस चडाबियं । हेम धदंड कलसोहि कारिउ, पहु जिणेसर सुगुरुपासि पठाविउ, विक्कमे वरिस तेरहइ सत्तरुत्तरे (१३०७) सेय वयसाह दसमीइ सुध्वासरे अभय तिलक गणिपासिखेलहिं मिलवि कराविउ, इयनिय मणि उल्लासिरासुलडउ भवियणदियहुं ।
१ सं० मुनि जिनविजय 'प्राचीन गुर्जर गद्य सन्दर्भ' देखिये
२. डा० प्रेमसागर जैन 'जैन भक्ति काव्य '
३. श्री अ० च० नाहटा, राज० सा० का आ० का०, परम्परा पृ० १६९ और श्री मो० द० देसाई, जै० गु० क० भाग ३ पृ० ३९९
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