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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१५५ विकसित होने लगीं। मुसलमानों ने गुजरात की भाषा को गुजराती कहना शुरू किया। इसलिए नर्मद को गुजराती भाषा का प्रारम्भिक कवि कहा जाने लगा। उन्होंने स्वयं कहीं लिखा है कि वि० सं० १३५६ के बाद मुसलमानी शासन में गुजराती भाषा गजरात में अपना स्वतन्त्र रूप ग्रहण करने लगी। इस प्रकार भाषा सम्बन्धी प्राचीन ऐक्य भी विघटित होने लगा। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अपनी-अपनी भाषा-बोली में अपना-अपना प्रादेशिक साहित्य लिखा जाने लगा। संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं का स्थान प्रादेशिक भाषाओं ने ले लिया और इन प्राचीन भाषाओं की अपेक्षा उनमें व्यापक रूप से रचनायें की जाने लगीं।
ऐसी आपत्ति के समय जब धर्म की हानि हो रही थी; मन्दिर मूर्तियाँ तोड़ी जा रही थीं, प्राचीन संस्कृति, भाषा-साहित्य खतरे में थी, तो एक बार पुनः जैन श्रावकों और साधुओं ने धर्म, भाषा और साहित्य के संरक्षण का बीड़ा उठाया । जब सं० १३६९ में शत्रुजय पर्वत पर स्थित आदीश्वर की प्रतिमा भंग की गई, तीर्थ-यात्राओं पर कर लगाया गया, जब राजपूत राजा और सामंत प्रजा और धर्म की रक्षा करने में असमर्थ हो रहे थे, तब एक वणिक गहस्थ समरसिंह ने मंदिर प्रतिमा के उद्धार कराने का अविस्मरणीय कार्य किया। समरसिंह पाटण का प्रतिष्ठित व्यापारी था और अलफ खां, जो गजरात में अलाउद्दीन का प्रतिनिधि था, का विश्वासपात्र उच्चाधिकारी भी था । उसने सबेदार अलफ खां से तीर्थोद्धार की आज्ञा प्राप्त करके जनता में अभूतपूर्व उत्साह संचरित कर दिया। समरसिंह के पिता संघपति देसल ने संघयात्रा निकाली और जैनधर्मावलम्बियों में नया प्राण फूक दिया। समरसिंह ग्यासदीन के पुत्र उल्लखान के भी विश्वासपात्र थे और उसके प्रतिनिधि के रूप में तिलंगदेश के सूबेदार भी रहे। आपका सं० १३९३ में स्वर्गवास हआ था। इनके चरित्र पर आधारित अनेक रचनायें प्रसिद्ध हैं जिनमें अम्बदेव कृत समरारास और कक्कसरिकृत नाभिनन्दनोद्धार प्रबन्ध विशेष उल्लेखनीय है। समरारास का विवरण यथास्थान दिया जायेगा।
धार्मिक स्थिति - तपागच्छ स्थापक श्री जगच्चन्द्र सूरि के पट्टधर श्री देवेन्द्रसूरि इस समय गुजरात में बड़े प्रभावशाली जैनाचार्य थे । वे वक्तृत्वकला में कुशल और उत्तम रचनाकार थे। उनके व्यक्तित्व के कारण १४वीं शताब्दी से गुजरात में तपागच्छ का प्रभाव बढ़ने लगा। श्री देवेन्द्र-. सुरि का स्वर्गवास सं० १३२७ में हुआ। इनके शिष्य श्री धर्मघोषसूरि भी:
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